वर्ष का तैंतीसवाँ सप्ताह, बृहस्पतिवार - वर्ष 1

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📕पहला पाठ

मक्काबियों का पहला ग्रन्थ 2:15-29

"हम अपने पुरखों के विधान के अनुसार चलेंगे।”

राजा के पदाधिकारी, जो लोगों को स्वधर्मत्याग के लिए बाध्य करते थे, बलिदानों का प्रबन्ध करने मोदीन नामक नगर पहुँचे। बहुत-से इस्राएली उन से मिल गये, किन्तु मत्तथ्या और उसके पुत्र अलग रहे। राजा के पदाधिकारियों ने मत्तथ्या को सम्बोधित करते हुए कहा, "आप इस नगर के प्रतिष्ठित और शक्तिशाली नेता हैं। आप को अपने पुत्रों और भाइयों का समर्थन प्राप्त है। आप सर्वप्रथम आगे बढ़ कर राजाज्ञा का पालन कीजिए, जैसा कि सभी राष्ट्र, यूदा के लोग और येरुसालेम के निवासी कर चुके हैं। ऐसा करने पर आप और आपके पुत्र राजा के मित्र बनेंगे। और सोना, चाँदी और बहुत-से उपहारों द्वारा आपका और आपके पुत्रों का सम्मान किया जायेगा।" मत्तथ्या ने पुकार कर यह उत्तर दिया, "राज्य के सभी राष्ट्र भले ही राजा की बात मान जायें, सभी अपने पुरखों का धर्म छोड़ दें और राजा के आदेशों का पालन करें, किन्तु मैं, मेरे पुत्र और मेरे भाई - हम अपने पुरखों के विधान के अनुसार ही चलेंगे। ईश्वर हमारी रक्षा करे, जिससे हम उसकी संहिता और उसके नियमों का परित्याग न करें। हम राजा की आज्ञाओं का पालन नहीं करेंगे और अपने धर्म का किसी भी प्रकार से उल्लंघन नहीं करेंगे।" मत्तथ्या के इन शब्दों के तुरन्त बाद एक यहूदी राजा के आदेशानुसार मोदीन की वेदी पर बलि चढ़ाने के लिए, सबों के देखते आगे बढ़ा। इस पर मत्तथ्या का धर्मोत्साह भड़क उठा और वह आगबबूला हो गया। उसने क्रोध के आवेग में आगे झपट कर उस यहूदी को वेदी पर मार डाला। उसने बलि के लिए लोगों को बाध्य करने वाले पदाधिकारी का वध किया और वेदी का विध्वंस किया। इस प्रकार मत्तथ्या ने पीनहास के सदृश संहिता के प्रति अपना उत्साह प्रदर्शित किया - पीनहास ने उसी तरह साल के पुत्र जिम्री का वध किया था। इसके बाद मत्तथ्या ने नगर भर में घूमते हुए ऊँचे स्वर से यह पुकार कर कहा, "जो संहिता के प्रति उत्साही हैं और विधान को बनाये रखने के पक्ष में हैं, वे मेरे पीछे-पीछे चले आयें।" इसके बाद वह और उसके पुत्र नगर में अपनी सारी सम्पत्ति छोड़ कर पहाड़ों पर भाग गये। उस समय बहुत-से लोग, जिन्हें धर्म और न्याय प्रिय था, उजाड़ प्रदेश जा कर वहाँ बस गये।

प्रभु की वाणी।

📖भजन : स्तोत्र 49:12,5-6,14-15

अनुवाक्य : सदाचारी ही ईश्वर के मुक्ति-विधान के दर्शन करेगा।

1. प्रभु सर्वेश्वर बोलता है, वह उदयाचल से अस्ताचल तक पृथ्वी के सब लोगों को संबोधित करता है। वह सौन्दर्यमय सियोन पर विराजमान है।

2. "मेरी प्रजा को मेरे सामने एकत्र करो, जिसने यज्ञ चढ़ा कर मेरा विधान स्वीकार किया है।" आकाश प्रभु की न्यायप्रियता घोषित करता है। ईश्वर स्वयं हमारा न्याय करने वाला है।

3. ईश्वर को धन्यवाद का बलिदान चढ़ाओ और उसके लिए अपनी मन्नतें पूरी करो।” यदि तुम संकट के समय मेरी दुहाई दोगे, तो मैं तुम्हारा उद्धार करूँगा और तुम मेरा सम्मान करोगे।”

📒जयघोष

अल्लेलूया! आज अपना हृदय कठोर न बनाओ, प्रभु की वाणी पर ध्यान दो। अल्लेलूया!

📙सुसमाचार

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 19:41-44

"यदि तू यह समझ पाता कि किन बातों में तेरी शांति है।”

येरुसालेम के निकट पहुँचने पर येसु ने शहर को देखा। वह उस पर रो पड़े और बोले, "हाय! कितना अच्छा होता यदि तू भी इस शुभ दिन यह समझ पाता कि किन बातों में तेरी शांति है। परन्तु अभी वे बातें तेरी आँखों में छिपी हुई हैं। तुझ पर वे दिन आयेंगे जब तेरे शत्रु तेरे चारों ओर मोरचा बांधकर तुझे घेर लेंगे, चारों ओर से तुझ पर दबाव डालेंगे, तुझे और तेरे अन्दर रहने वाली तेरी प्रजा को मटियामेट कर देंगे और तुझ में एक पत्थर पर दूसरा पत्थर पड़ा नहीं रहने देंगे, क्योंकि तूने अपने प्रभु के आगमन की, शुभ घड़ी को नहीं पहचाना।”

प्रभु का सुसमाचार।


📚 मनन-चिंतन

क्या आप येसु की बात मानते हैं? जब वह आपको पाप करने से मना करते है या उन लोगों से बचने के लिए कहते है जो केवल आपको पाप करने के लिए उकसाते हैं? येसु अक्सर आपके किसी करीबी का उपयोग करते हुए आपको सचेत करते है, आपका मार्गदर्शन करते है। येसु ने अपने समय में लोगों को सीधे पश्चाताप के लिए बुलाया अपितु कुछ ही लोगों ने अनुसरण किया। जिन लोगों ने येसु की आवाज को अनसुना किया या सुना ही नहीं तो वे धीरे-धीरे अपने पापों के कारण अंधकार में लिप्त होते गए। हमारे दैनिक जीवन में भी हमें अच्छा जीवन जीने के लिए प्रेरित किया जाता लेकिन क्या हम उसका पालन करते हैं। संक्षिप्त में यदि हम येसु का अनुसरण करें तो हमारे पास पाने के लिए सब कुछ है और खोने के लिये कुछ भी नहीं।

फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)

📚 REFLECTION


Do you obey Jesus when He tells you to stop sinning or to avoid those people who only make you sin? Jesus does this to you using people close to you, for example Jesus may use a relative, a friend or a life incident to tell you to walk away from sin or mend your ways. During the time of Jesus, He directly called for repentance, some listened to His call. But many of them did not listen, they instead continued with their sinful way of life. In doing so they wrapped themselves with problems that they could have easily avoided if they only listened to Jesus. Come to think of it, in our own personal lives there are also many instances that we are advised to live a clean life. To renew our lives and walk away from all our sinfulness, but do we listen? Often times we don’t listen because we love to follow our own sinful desires, we allow the devil to possess us instead of Jesus. In short we have everything to gain and nothing to lose if we always listen to Jesus.

-Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)

मनन-चिंतन -2

आंसू हमारे अपने जीवन का हिस्सा है । हमारी ऑंखों में ऑंसू तब आते है जब कोई चीज हमारी ऑंखों में चली जाती है या दिलो में । आंसू भी सुसमाचार के वृतांतों का हिस्सा है । चारों सुसमाचार में, ऑंसू बहाने या विलाप के 26 संदर्भ है: पिता बीमार बेटी के लिए विलाप करता है, विधवा अपने इकलौते बेटे के लिए आंसू बहाती है, पापी स्त्री येसु के चरणों में रोती है, येसु का इनकार करने के कारण पेत्रुस फूट-फूट कर रोता है और इसी तरह अन्य संदर्भ है ।

येसु क्रूस को ढोते समय या क्रूस पर लटके हुए और कोड़ों की मार पर भी नही रोए, लेकिन उन्होंने समय-समय पर अपना दुख व्यक्त किया क्योंकि उन्हें उन लोगों के लिए सहानुभूति थी जिन्हें वे प्यार करते तथा जिनकी देखभाल करते थे । सहानुभूति सिर्फ दूसरों के लिए एक भावना नहीं है बल्कि खुद को दूसरे के स्थान पर रखना है । उन्होने अपने भाई लाजरूस को जीवित करके रोते हुए मार्था और मरियम को दिलासा दिया और मरियम मगदलेना के ऑसुओं को आनन्द में बदल दिया जब वे उनसे खाली कब्र पर मिलें । यीशु ने रोनेवालो को यह कहकर आशीष दी कि वे शान्ति प्राप्त करेंगे । संत पौलुस रोमियों को इसी समान मनोवृति रखने की सलाह देते है जब वे कहते है, “15) आनन्द मनाने वालों के साथ आनन्द मनायें, रोने वालों के साथ रोयें।“ (रोमियों 12ः15)

सुसमाचार दो अवसरों को दर्ज करते है जब येसु ने विलाप कियाः पहला अपने मित्र लाजरूस की मृत्यु पर (योहन 11ः35), दूसरा उस अवसर पर जब उन्होंने यंरूसालेम शहर के भविष्य के विनाश को देखा (लूकस 19ः41)।ष्

येसु येरूसालेम शहर के लिए उनके प्रेम के कारण रोते है । येरूसालेम दो प्रतिद्वंदी वंशजों बेनयामीन (साऊल का वंशज) और यूदा (दाऊद का वंशज) के बीच स्थित है। इसे शांति का शहर माना जाता था । लेकिन येसु को अस्वीकार करके वे पश्चाताप करने और उसे परमेश्वर के पुत्र के रूप में पहचानने में विफल रहे । उन्होंने शांति का एक मौका गंवा दिया और शहर के लिए तबाही लेकर आये ।

येसु ने लोगोें के अविश्वास पर विलाप किया । वे मसीह के प्रति उदासीन थे क्योंकि जीवन में सब चीजें ठीक चल रही थी । उन्होंने येसु को सार्वजनिक व्यवस्था या उनके आरामदायक जीवन के लिए एक खतरे के रूप में देखा । ईश्वर यह अपेक्षा करता है कि हम पूरे मन से उसकी पवित्र इच्छा के प्रति समर्पण करें

आइए हम लोगों के प्रति सहानुभूति रखें और ईश्वर के प्रति उदासीन होने से बचें ।

-फादर मेलविन चुल्लिकल


REFLECTION

Tears are part of our own lives. Tears form in our eyes when something gets into our eyes or when something gets into our hearts. Tears are part of the Gospel accounts as well. In four Gospels, there are 26 references to weeping: father weeping for ailing daughter, widow shedding tears for her only son, sinful woman weeping at the foot of Jesus, Peter weeping bitterly for denying Jesus and so on.

Jesus did not weep at the scourging, while carrying the cross or hanging on the cross, but he expressed his sorrow at times because he had an empathy for the people he loved and cared for. Empathy is not just a feeling for others but putting oneself in the place of another. St. Paul admonishes Romans to have the same attitude when he says, “Rejoice with those who are joyful; and weep with those who weep” (Rom 12:15)

The Gospels record two occasions when Jesus wept: the first at the death of his friend Lazarus (Jn.11:35), second on the occasion when he saw the future destruction of the City of Jerusalem (Lk.19:41).

Jesus weeps because of His love for the city of Jerusalem. Jerusalem is situated between two rivalry tribes Benjamin (tribe of Saul) and Judah (tribe of David). It was supposed to be the city of peace. But by rejecting Jesus they failed to repent and recognize him as son of God. They missed an opportunity for peace and brought destruction to the city.

Jesus lamented over the unbelief of the people. They were indifferent to Christ because things in life seemed to be going well. They saw Jesus as a threat to public order or their comfort zones. God expects that we surrender to His holy will with whole heart.

Let us be empathetic towards people and avoid being indifferent to God

-Fr. Melvin Chullickal