उस समय यूदस और उसके भाइयों ने यह कहा, "हमारे शत्रु हार गये। हम जा कर मंदिर का शुद्धीकरण और प्रतिष्ठान करें।" समस्त सेना एकत्र हो गयी और सियोन के पर्वत की ओर चल पड़ी। एक सौ अड़तालीसवें वर्ष के नौवें महीने - अर्थात् किसलेव के पच्चीसवें दिन, लोग पौ फटते ही उठे और उन्होंने होम की जो नयी वेदी बनायी थी, उस पर विधिवत बलि चढ़ायी। जिस समय और जिस दिन गैरयहूदियों ने वेदी को अपवित्र कर दिया था, उस समय और उसी दिन भजन गाते और सितार, वीणा तथा झाँज बजाते हुए उन्होंने वेदी का प्रतिष्ठान किया। सब लोगों ने दण्डवत कर आराधना की और ईश्वर को धन्य कहा, जिसने उन्हें सफलता दी थी। वे आनन्द के साथ होम, शांति तथा धन्यवाद का यज्ञ चढ़ा कर आठ दिन तक वेदी के प्रतिष्ठान का पर्व मनाते रहे। उन्होंने मंदिर का अग्रभाग सोने की मालाओं तथा ढालों से विभूषित किया, फाटकों तथा याजकों की शालाओं को मरम्मत किया और इन में दरवाजे लगाये। लोगों में उल्लास था और उन पर लगा हुआ गैरयहूदियों का कलंक मिट गया। यूदस ने अपने भाइयों तथा इस्राएल के समस्त समुदाय के साथ यह निर्णय किया कि प्रतिवर्ष उसी समय अर्थात् किसलेव के पच्चीसवें दिन से ले कर आठ दिन तक वेदी के पुर्नप्रतिष्ठान का पर्व उल्लास तथा आनन्द के साथ मनाया जायेगा।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : हे प्रभु! हम तेरे महिमामय नाम की स्तुति करते हैं।
हे प्रभु! तू धन्य है! अनादिकाल से और सदा के लिए। तू इस्राएल, हमारे पिता का राजा है।
2. हे प्रभु! तुझ में महिमा, सामर्थ्य, प्रताप, गौरव और प्रभुता है। स्वर्ग में तथा पृथ्वी पर जो कुछ है, तेरा ही है।
3. हे प्रभु! सर्वत्र तेरा ही साम्राज्य है। तू समस्त विश्व का अधिपति है। धन और सम्मान तुझ में मिलता है।
4. तू समस्त पृथ्वी का शासक है। तेरे हाथ में शक्ति है और सामर्थ्य, तेरे हाथ में महिमा है और प्रताप।
अल्लेलूया! प्रभु कहते हैं, "मेरी भेड़ें मेरी आवाज पहचानती हैं। मैं उन्हें जानता हूँ और वे मेरा अनुसरण करती हैं।" अल्लेलूया!
येसु मंदिर में प्रवेश कर बिक्री करने वालों को यह कहते हुए बाहर निकालने लगे, "लिखा है- मेरा घर प्रार्थना का घर होगा, परन्तु तुम लोगों ने उसे लुटेरों का अड्डा बना दिया है।" वह प्रतिदिन मंदिर में शिक्षा देते थे। महायाजक, शास्त्री और जनता के नेता उनके सर्वनाश का उपाय ढूँढ़ रहे थे, परन्तु उन्हें नहीं सूझ रहा था कि क्या करें; क्योंकि सारी जनता बड़ी रुचि से उनकी शिक्षा सुनती थी।
प्रभु का सुसमाचार।
मंदिर को शुद्ध और पवित्र करने के बाद येसु प्रतिदिन शिक्षा देते थे। येसु आज भी हमें शिक्षा देते है कि, हम अपना जीवन अच्छे से जीने का प्रयास करें। येसु के लिए जीवन सेवा है, जीवन नम्रता है, जीवन बलिदान है, जीवन सादगी है परन्तु उस समय येसु प्रतिदिन किस विषय पर शिक्षा दे रहे थे। हम केवल अनुमान लगा सकते है कि, वह मंदिर के अंदर के व्यवहार के विषय में था और शायद अच्छे जीवन के विषय में भी बता रहे थे। क्या हमारे जीवन को ठीक से जीने का कोई उदाहरण है? बेशक वो और कोई नहीं बल्कि स्वयं प्रभु येसु है। उनका जीवन हमारे लिए सर्वोत्तम उदाहरण है। क्या हम उनके जीवन का अनुसरण करने का साहस रखते हैं? आइए हम भी येसु के समान एक शिक्षक बने। येसु के जीवन का अनुसरण हर कोई व्यक्ति और हर समय किया जा सकता है।
✍फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)After cleaning the temple of impurities Jesus taught there daily, Jesus is still teaching us up to this very minute. Teaching us how to properly live our lives, teaching us that life is not so much of material and intellectual accumulation. For Jesus life is service, life is humility, life is sacrifice, life is about simplicity and the like. What was Jesus everyday teaching topic during that time? We could only guess that it was about behavior when inside the temple. And perhaps He was also teaching them about life and how to properly live it. Is there a template on how to properly live our life? Of course there is and it’s no other than the life of Jesus himself. To live according to His life is the perfect life template, but would we dare to live the life of Jesus? Let us be teachers also like Jesus, let us teach our children about Jesus, let us teach them how to behave at church. Let us teach the life of Jesus by our way of life. But the life of Jesus is more relevant today more than ever. Jesus is a man for all season and for all times. He is always relevant and His teachings also are always relevant regardless of time, thus; we have to listen to JESUS.
✍ -Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)
जब प्रभु येसु ने पवित्र वचन की घोषणा की, तब गरीबों और आम लोगों ने उनकी प्रशंसा की और उनके संदेश को स्वीकार किया, लेकिन शक्तिशाली और प्रभावशाली लोगों ने उन्हें अस्वीकार किया और उनका विरोध किया। जरूरतमंद लोग आसानी से ईश्वर को स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन जिन लोगों की जरूरतें पहले से पूरी हो जाती हैं, उन्हें अपने जीवन में ईश्वर की भूमिका स्वीकार करना मुश्किल हो जाता है। येसु स्वर्गिक पिता द्वारा उनके लिए निर्धारित किए गए मार्ग पर ही चलते थे। वे लोकप्रियता या विरोध के कारण पीछे नहीं हटते थे। वे ईश्वर की इच्छा को पूरा करने के सीधे मार्ग पर चलते रहते थे। जब शैतान उन्हें अपने रास्ते से हटाने की कोशिश करता है, तब वे शैतान की चालों को समझ सकते हैं और उसे अपने सामने से निष्कासित करते हैं। स्वर्गराज्य के लिए सब कुछ नया करने के मकसद से, वे मंदिर की पवित्रता पर जोर देते हैं जिसे उनके समय के लोगों ने बाजार या लुटेरों के अड्डे में बदल दिया था। क्या हम येसु की तरफ हैं या फरीसियों और सदूकियों की तरफ?
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
When Jesus preached the Word, the poor and ordinary people acclaimed him and accepted his message, but the powerful and the influential rejected and opposed him. The people in need easily accept God but the people whose needs are already met find it difficult to accept the role of God in their lives. Jesus simply keeps himself on the path marked out for him by the heavenly Father. He does not get diverted by popularity or by opposition. He keeps going straight in doing the will of God. When Satan tries to divert him from his path, he is quick to sense the tricks of Satan and expel him from his presence. In an exercise of renewing everything for the Kingdom, he insists on the sanctity of the temple which the people of his time had turned into a market or den of robbers. Are we on the side of Jesus or on the side of the Pharisees and the Scribes?
✍ -Fr. Francis Scaria