📖 - विधि-विवरण ग्रन्थ

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अध्याय 29

1) मूसा ने सब इस्राएलियों को एकत्रित कर उन से कहा, “तुम ने वह सब देखा है, जो प्रभु ने मिस्र देश में तुम्हारी आँखों के सामने फिराऊन, उसके सब दरबारियों और उसके सारे देश के साथ किया था,

2) अर्थात् वे बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ, चमत्कारी चिह्न और महान कार्य जिन्हें तुमने अपनी आँखों से देखा है।

3) परन्तु आज के दिन तक प्रभु ने तुम्हें ऐसा हृदय नहीं दिया, जिससे तुम समझ सको, ऐसी आँखे नहीं दी, जिससे तुम देख सको और ऐसे कान नहीं दिये, जिन से तुम सुन सको।

4) मैंने चालीस वर्ष तक उजाड़खण्ड़ में तुम्हारा नेतृत्व किया। तब भी न तुम्हारे शरीर के वस्त्र जर्जर हुये और न तुम्हारे पाँव के जूते घिसे।

5) तुम्हें खाने के लिए रोटी नहीं मिली, पीने के लिये अंगूरी नहीं मिली, मदिरा नहीं मिली। इसी से तुम्हें समझ लेना चाहिए था कि मैं प्रभु, तुम्हारा ईश्वर हूँ।

6) जब तुम उस स्थान पर आ गये थे, तब हेशबोन का राजा सीहोन और बषान का राजा ओग हम से लड़ने आये थे, लेकिन हमने उन को पराजित किया।

7) हमने उनके देश पर अधिकार कर लिया और उसे दायभाग के रूप में रूबेन और गाद के वंशों को तथा मनस्से के आधे वंश में बाँट दिया।

8) इसलिए तुम इस विधान के शब्दों का सावधानी से पालन करो, जिससे तुम अपने सब कार्यों में सफ़ल हो सको।

9) आज तुम सब प्रभु, अपने ईश्वर के सामने उपस्थित हुये हो - तुम्हारे मुखिया, तुम्हारे वंश, तुम्हारे नेता और तुम्हारे सचिव, अर्थात् इस्राएल के सब पुरुष,

10) फिर तुम्हारे बच्चे और स्त्रियों और लकड़ी काटने वाले से पानी भरने वाले तक तुम्हारे शिविर के प्रवासी भी।

11) तुम प्रभु, अपने ईश्वर का विधान स्वीकार करोगे, जिसे वह आज शपथ पूर्वक तुम्हारे लिए निर्धारित करेगा।

12) वह तुम को आज अपनी प्रजा के रूप में अपनाना और स्वंय तुम्हारा ईश्वर बनना चाहता है, जैसे की उसने तुम से प्रतिज्ञा की और तुम्हारे पूर्वजों, इब्राहीम, इसहाक और याकूब से शपथ खाकर कहा है।

13) "यह शपथपूर्वक घोषित विधान न केवल तुम्हारे लिए है,

14) जो आज यहाँ हमारे साथ प्रभु, अपने ईश्वर के सामने खडे़ है, बल्कि उन लोगों के लिए भी है, जो आज यहाँ नहीं हैं।

15) तुम्हें मालूम है कि हम मिस्र में कैसे रहते थे और हम किस प्रकार अनेक देशों से होकर वहाँ से आये हैं।

16) उस समय तुमने उनके यहाँ लकड़ी और पत्थर, चाँदी और सोने की घृणित देव मूर्तियों को देखा है।

17) अब तुम में कोई ऐसा न हो - न कोई पुरुष, न कोई स्त्री, न कोई कुल, न कोई वंश - जो आज प्रभु, अपने ईश्वर से विमुख होकर उन राष्ट्रों के देवताओं की पूजा करने लगे। सावधान रहो कि तुम में कोई ऐसी जड़ नहीं हो, जो ऐसा कड़वा विष पैदा करें।

18) यदि कोई इस विधान के शब्द सुनकर अपने को सुरक्षित समझे और अपने मन में कहे, ’यद्यपि मैं हठ पूर्वक अपनी राह चलता रहूँगा, तो मुझे कुछ नहीं होगा; क्योंकि सीचीं हुई भूमि को प्यास नहीं लगती’,

19) तो प्रभु उस व्यक्ति को कभी क्षमा नहीं करेगा। उसका क्रोध और ईर्ष्या उस व्यक्ति के प्रति भड़क उठेगी। इस ग्रन्थ में लिखे सभी अभिशाप उस पर आ पड़ेंगे और प्रभु उसका नाम पृथ्वीतल से मिटा देगा।

20) संहिता के इस ग्रंथ मे लिखित विधान के सब अभिशापों के अनुसार प्रभु उसका विनाश करने के लिए उसे इस्राएल के सब वंशों से अलग कर देगा।

21) "आने वाली पीढ़ियाँ, तुम्हारे बाद उत्पन्न होने वाले तुम्हारे वंशज और दूर देश से आने वाला परदेशी, प्रभु द्वारा इस देश पर भेजी हुई विपत्तियाँ और बीमारियाँ देख कर कहेंगे,

22) ’यह सारा देश नमक और गंधक के कारण उजड़ गया है। इस में न बीज बोया जाता है और न अंकुर ही उगता है। इसमें कोई घास-वनस्पति पैदा नहीं होती। सोदोम और गोमोरा, अदमा और सबोयीम की भी यही दशा थी, जब प्रभु ने कुपित होकर उन्हें अपने क्रोध में नष्ट किया था।'

23) सब लोग पूछेंगे, ’प्रभु ने इस देश के साथ ऐसा क्यों किया? इस भयंकर कोपाग्नि का क्या कारण है?

24) तब उसका उत्तर यह होगा, ’यह इसलिए हुआ की उन्होंने प्रभु, अपने पूर्वजों के ईश्वर का वह विधान भंग किया जिसे उसने मिस्र देश से निकालते समय उनके लिए निर्धारित किया था।

25) ऐसा इसलिए हुआ कि उन्होंने पराये देवताओं कि पूजा और वन्दना की, ऐसे देवताओं की, जिन्हें वे नहीं जानते थे और जिनके लिए उसने उन्हें मना किया था।

26) यही कारण है कि प्रभु का कोप इस देश पर प्रज्वलित हुआ और उसने इस ग्रंथ में लिखित समस्त अभिशापों को उन पर पड़ने दिया।

27) प्रभु ने क्रोध और रोष में आकर उन्हें उनके देश से उखाड़ कर दूसरे देश में निर्वासित किया, जैसा कि हम आज देख रहे हैं।

28) “गुप्त बातें प्रभु, हमारा ईश्वर ही जानता है, लेकिन यह बातें हम पर और हमारी सन्तति पर इसलिए प्रकट हुई हैं कि हम सदा इस संहिता के शब्दों का पालन करें।“



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