📖 - ज़कारिया का ग्रन्थ (Zechariah)

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अध्याय 04

1) वह दूत, जो मुझ से बातें कर रहा था, फिर आया। उसने वैसे ही मुझ को जगा दिया, जैसे कोई सोते हुए जागता है।

2) उसने मुझ से पूछा, "तुम क्या देखते हो?" मैंने उत्तर दिया, "मैं सोने का दीपवृक्ष देखतो हूँ जिसके सिरे पर कटोरा है; कटोरे पर सात दीपक हैं, एक-एक दीपक के लिए एक-एक नाली।

3) उसके पास दो जैतून वृक्ष, एक दाहिनी ओर और दूसरा बायीं और।"

4) जो दूत मुझ से बोल रहा था, उस से मैंने फिर पूछा, "स्वामी! इनका अर्थ क्या है?"

5) जो दूत मुझ से बोल रहा था, उसने उत्तर दिया, "क्या तुम इनका अर्थ नहीं जानते?" मैंने कहा, ’जी नहीं"।

6) 6.अः तब उसने मुझे यह उत्तर दिया, "ये सात दीपक प्रभु-ईश्वर की सात आँखें हैं! ये समस्त संसार का निरीक्षण करती हैं"। 6). बः दूत ने फिर कहा, "ज़रुबबाबेल के लिए प्रभु का संदेश यह हैः विश्वमण्डल के प्र्रभु की वाणी- शक्ति और सामर्थ्य से नहीं, वरन् मेरे आत्मा के

7) मलबे का विशाल ढेर! तू क्या है? तू ज़रुबबाबेल के सामने सपाट हो जायेगा। तुझ में से वह सिरे का पत्थर निकालेगा, जिसे देख कर लोग पुकार उठेंगे, ’अहा! कितना मनोहर, कितना मनोहर!"

8) प्रभु-ईश्वर से मुझे यह वाणी प्राप्त हुईः

9) "ज़रुबबाबेल के हाथों से इस मंदिर की नींव डाली गयी और वे ही साथ निर्माण-कार्य पूरा करेंगे। (इस से तुम जान जाओगे कि विश्वमण्डल के प्रभु ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।)

10) 10.अः आज के छोटे कार्यों को तुच्छ न समझना! ज़रुबबाबेल के हाथ में साहुल देख कर लोग आनन्दित होंगें।" 10) 10.बः मैंने फिर पूछा, "दीपवृक्ष के दायें-बायें खडे

11) दो जैतून के वृक्षों का अभिप्राय क्या है?"

12) एक और प्रश्न मैंने पूछा, "जैतून की शाखाओं का अर्थ क्या है, जो दो स्वर्ण नालियों में तेल उँढेल रही हैं?"

13) उसने उत्तर दिया, "क्या तुम इन चीज़ों का अभिप्राय नहीं समझते हो"। मैंने कहा, "जी नहीं"।

14) वह बोला, ’ये वे दोनों अभिषिक्त पुरुष हैं, जो समस्त पृथ्वी के प्रभु के सम्मुख खडे रहते हैं"।



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