📖 - समूएल का पहला ग्रन्थ

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अध्याय 14

1) एक दिन साऊल के पुत्र योनातान ने अपने शस्त्रवाहक सेवक से कहा, "चलो, हम फ़िलिस्तियों की चैकी के पास जायें, जो घाटी के उस ओर है।" लेकिन उसने इसके बारे में अपने पिता से कुछ नहीं कहा।

2) साऊल गिबआ की सीमा पर उस अनार वृक्ष के नीचे पड़ा था, जो मिगरोन के पास है। उसके साथ की सेना में लगभग छः सौ सैनिक थे।

3) शिलों में प्रभु के याजक एली का प्रपौत्र, पीनहास का पौत्र, अहीटूब का पुत्र, ईकाबोद का भाई अहीया एफ़ोद पहने हुए हुए साथ था। लोगों को यह मालूम नहीं था कि योनातान चला गया है।

4) फ़िलिस्तियों की चैकी पर आक्रमण करने के लिए योनातान को जिस घाटी को पार करना था, उसके दोनों ओर ऊँची चट्टान थी। एक का नाम बोसेस था और दूसरी का सेन्ने।

5) एक चट्टान तो उत्तर की ओर मिकमास के सामने थी और दूसरी, दक्षिण की ओर गेबा के सामने।

6) योनातान ने अपने शस्त्रवाहक से कहा, "चलो, हम उन बेख़तना लोगों की चैकी के पास चलें। हो सकता है कि प्रभु हमारा साथ दे; क्योंकि विजय दिलाने से प्रभु को कुछ भी रोक नहीं सकता, चाहे हम संख्या में अधिक हों या कम।"

7) उसके शस्त्रवाहक ने उसे उत्तर दिया, "आप जो चाहते है, वही कीजिए। मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ। आप जो चाहेंगे, मैं भी वही चाहूँगा।"

8) योनातान ने कहा, "हम उधर की ओर आगे बढ़े, जिससे चैकी वाले हमें देख लें।

9) यदि वे हम से कहेंगे कि जब तक हम तुम्हारे पास न आयें, तब तक ठहरे रहो, तो हम उसी स्थान पर रुक जायेंगे और उसके पास ऊपर नहीं चढ़ोगे;

10) और यदि वे हम से कहेंगे कि हमारे पास आ जाओ, तो हम उनके पास ऊपर चढ़ चलेंगे; क्योंकि यह हमारे लिए एक संकेत होगा कि प्रभु ने उन्हें हमारे हाथ दिया है।"

11) जब दोनों फ़िलिस्तिी चैकी की ओर आगे बढें, तो फ़िलिस्तियों ने कहा कि लगता है, अब इब्रानी उन कन्दराओं से निकल आये हैं, जिन में वे छिपे हुए थे।

12) उस चैकी के लोगों ने योनातान और उसके शस्त्रवाहक को पुकार कर कहा, "हमारे पास ऊपर आओ। हम तुम से कुछ कहना चाहते हैं।" तब योनातान ने अपने शस्त्रवाहक से कहा, "मेरे पीछे-पीछे ऊपर चढ़ो, क्योंकि प्रभु ने उन्हें इस्राएल के हाथ दिया है।"

13) तब योनातान हाथ-पैर के सहारे ऊपर चढ़ गया और उसके पीछे-पीछे उसका शस्त्रवाहक उसके भी। चैकी के सैनिक योनातान के सामने गिरते गये और उसका शस्त्रवाहक उसके पीछे-पीछे उनका वध करता गया।

14) उस पहली मुठभेड़ में योनातान और उसके शस्त्रवाहक के द्वारा आधे बीघे भूमि में लगभग बीस मनुष्य मारे गये।

15) इसके बाद शिविर, क्षेत्र और सब लोगों में आतंक फैल गया। चैकी और छापामार दल के सैनिक भयभीत हो उठे। पृथ्वी काँप उठी। यह ईश्वर का फैलाया हुआ आतंक था।

16) बेनयामीन के गिबआ में साऊल के पहरेदारों ने आँखे उठायी, तो देखा कि लोग चारों ओर बिखर रहे हैं।

17) तब साऊल ने अपने पास के आदमियों को आज्ञा दी, "लोगों की गिनती करो और पता लगाओ कि हमारे यहाँ से कौन गया है।" गिनती करने पर मालूम हुआ कि योनातान और उसका शस्त्रवाहक नहीं हैं।

18) तब साऊल ने अहीया को ईश्वर की मंजूषा पास लाने की आज्ञा दी, क्योंकि उस समय ईश्वर की मंजूषा इस्राएलियों के पास थी।

19) जिस समय साऊल याजक से बातें कर रहा था, फ़िलिस्तियों के शिविर का होहल्ला बढ़ता ही जा रहा था। तब साऊल ने याजक से कहा, "रहने दो।"

20) साऊल और उसके पास के सब सैनिक एकत्रित हुए और रण क्षेत्र में आ पहुँचें। उन्होंने देखा कि सैनिक आपस में ही तलवार चला रहे हैं और बड़ी खलबली मची हुई है।

21) अब वे इब्रानी भी साऊल और योनातान के पास रहने वाले इस्राएलियों का साथ देने लगे, जो पहले फ़िलिस्तियों का साथ देते थे और उनके शिविर में आये थे।

22) जब एफ्ऱईम के पहाड़ी प्रदेश में छिपे हुए इस्राएलियों ने सुना कि फ़िलिस्ती भाग रहे हैं, तो उन्होंने भी युद्ध में सम्मिलित हो कर फ़िलिस्तियों का पीछा किया।

23) इस प्रकार प्रभु ने उस दिन इस्राएलियों का उद्धार किया और बेत-आवेन के आगे तक युद्ध फैलता रहा।

24) उस दिन इस्राएली बड़े परेशान रहे; क्योंकि साऊल ने लोगों को यह शपथ दिलाते हुए कहा कि जब तक सन्ध्या न हो जाये और मैं अपने शत्रुओं से बदला न ले लूँ, तब तक यदि कोई आदमी कुछ खायेगा, तो वह अभिशप्त हो। इसलिए लोगों में किसी ने कुछ नहीं खाया।

25) सब लोग वन में आये और उन्हें वहाँ भूमि पर, एक खुले मैदान में मधु मिला।

26) लोगों ने वन में आगे बढ़ कर छत्तों से टपकता हुआ मधु देखा, किन्तु शपथ के कारण किसी ने उसकी ओर हाथ नहीं बढ़ाया।

27) किन्तु साऊल ने लोगों को जो शपथ दिलायी, उसके विषय में योनातान ने कुछ नहीं सुना था; इसलिए उसने अपने हाथ के डण्डे के सिरे को मधु के छत्ते में डुबा कर अपने हाथ से मुंँह में थोड़ा डाल लिया और उसकी आँंखें चमक उठीं।

28) लोगों में किसी ने उस से कहा, "तुम्हारे पिता ने लोगों को शपथ दिलाते हुए कहा कि जो आज खायेगा, वह अभिशप्त हो, इसलिए लोग थके माँदे हैं।"

29) योनातान ने उत्तर दिया, "मेरे पिता तो देश को परेशान करते हैं। मैंने थोड़ा-सा मधु खाया और देखों मेरी आँखे चमक उठी हैं।

30) यदि लोगों ने भी अपने शत्रुओं से लूटी हुई चीजों से कुछ खाया होता, तो फ़िलिस्तियों पर हमारी जीत और शानदार होती।"

31) उस दिन उन्होंने फ़िलिस्तियों को मिकमास से अय्यालोन तक भगा दिया। लोग बडे़ थके-माँदे थे;

32) इसलिए वे लूट पर टूट पडे़ और उन्होंने भेड़ो, बैलों और बछड़ों को पकड़ कर भूमि पर उनका वध किया और लोग उन्हें रक्त-सहित खाने लगे।

33) जब साऊल को यह सूचना मिली कि लोग रक्त सहित मांस खा कर प्रभु के विरुद्ध पाप कर रहे हैं, तो वह चिल्ला उठा, "तुम लोगों ने (ईश्वर के प्रति) विश्वासघात किया। मेरे पास तुरन्त एक बड़ा पत्थर लुढ़का लाओ।"

34) साऊल ने आज्ञा दी, "चारों ओर जा कर लोगों से कहो कि प्रत्येक व्यक्ति अपना बैल या भेड़ यहाँ लाये और मेरे सामने उसका वध कर उसे खाये। रक्त-सहित मांस खा कर प्रभु के विरुद्ध पाप मत करो।" इस पर लोगों में प्रत्येक ने उस रात अपने पास का बैल ला कर उसका वहां वध किया।

35) साऊल ने प्रभु के लिए एक वेदी बनायी। यह प्रथम वेदी थी, जो उसने प्रभु के लिए बनायी थी।

36) तब साऊल ने कहा, "हम इसी रात फ़िलिस्तियों का पीछा करें और सबेरे तक उन्हें लूट लें। हम उन में एक को भी जीवित नहीं छोड़ें।" लोगों ने कहा, "आप जो उचित समझें, वहीं करें।" परन्तु याजक ने कहा, "पहले हम ईश्वर से पूछेंगे।"

37) इसलिए साऊल ने ईश्वर से पूछा, "क्या मैं फ़िलिस्तियों का पीछा करूँ? और क्या तू उन्हें इस्राएल के हाथ देगा?" लेकिन उस दिन उसे कुछ उत्तर नहीं मिला।

38) इस पर साऊल ने आदेश दिया, "जनता के नेताओं! तुम सब यहाँ आओ। पता लगाओ कि आज यहाँ किसने पाप किया है।

39) इस्राएल के उद्धारक प्रभु की शपथ! यदि मेरे पुत्र योनातान ने भी पाप किया होगा, तो उसे भी मृत्युदण्ड मिलेगा।" लोगों में किसी ने भी उसे उत्तर नहीं दिया।

40) तब उसने सब इस्राएलियों से कहा, "तुम एक ओर खडे़ होओ और मैं और मेरा पुत्र योनातान दूसरी ओर।" लोगों ने साऊल को उत्तर दिया, "आप जो उचित समझें, वही करें। "

41) तब साऊल ने प्रभु से प्रार्थना की, "प्रभु ! इस्राएल के ईश्वर! तू सत्य प्रकट कर। यदि अपराध मेरा या मेरे पुत्र योनातान का हो, तो प्रभु इस्राएल के ईश्वर! तू यह चिट्ठी द्वारा प्रकट कर। किन्तु यदि अपराध तुम्हारी प्रजा इस्राएल का हो, तो यह चिट्ठी द्वारा प्रकट कर।" चिट्ठी योनतान और साऊल के नाम निकली और दूसरे लोग निर्दोष निकले।

42) तब साऊल ने कहा, "अब मेरे और मेरे पुत्र योनातान के नाम पर चिट्ठी डालो।" तब चिट्ठी योनातान के नाम निकली।

43) साऊल ने योनातान से कहा, "मुझे बताओ कि तुमने क्या किया है?" योनातान ने स्वीकार किया, "मैंने अपने हाथ के डण्डे से थोड़ा-सा मधु ले कर खा लिया था। मैं मरने को तैयार हूँ।"

44) साऊल ने कहा, "योनातान! यदि तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी, तो ईश्वर मुझे कठोर-से-कठोर दण्ड दिलाये।"

45) लेकिन लोगों ने साऊल से कहा, "क्या योनातान को, जिसने इस्राएल के लिए इतनी बड़ी विजय प्राप्त की है, मृत्युदण्ड मिलना चाहिए? कभी नहीं! जीवन्त ईश्वर की शपथ! उसके सिर के एक बाल को भी आँच नहीं आनी चाहिए; क्योंकि ईश्वर की सहायता से ही आज उसने यह विजय प्राप्त की है।" इस प्रकार लोगों ने योनातान को मृत्युद्ण्ड से बचा लिया।

46) साऊल ने फ़िलिस्तियों का पीछा करना बन्द कर दिया और फ़िलिस्ती अपने देश लौट गये।

47) साऊल के इस्राएल पर राज्याधिकार प्राप्त कर लेने के बाद उसे आसपास के सब शत्रुओं-मोआब, अम्मोनियों, एदोम, सोबा के राजाओं और फ़िलिस्तियों - से युद्ध करना पड़ा। वह जहाँ भी गया, विजयी हुआ।

48) उसने वीरता के साथ युद्ध किया, अमालेकियों को पराजित किया और इस्राएल को उसके लूटने वालों के हाथों से बचा लिया।

49) साऊल के पुत्र ये थे: योनातान, इश्वी और मलकीशूआ। उसकी दो पुत्रियाँ भी थीं। बड़ी पुत्री का नाम मेरब था और छोटी का नाम मीकल।

50) अहीमअस की पुत्री अहीनोअम साऊल की पत्नी थी। नेर का पुत्र, साऊल का चाचा अबनेर उसका सेनापति था।

51) साऊल का पिता कीश और अबनेर का पिता नेर, दोनों अबीएल के पुत्र थे।

52) साऊल के जीवनकाल तक भीषण युद्ध चलता रहा। जब साऊल किसी बलवान् और वीर पुरुष को देखता, तो वह उसे अपनी सेवा में ले लेता।



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