📖 - मक्काबियों का पहला ग्रन्थ

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अध्याय 01

1) फ़िलिप का पुत्र मकेदूनी सिकन्दर कित्तियों के देश चला और फारसियों और मेदियो के राजा दारा को पराजित कर उसकी जगह स्वयं वहाँ का राजा बन बैठा। इसके पहले यह यूनान का राजा था।

2) उसने बहुत-से युद्ध किये, किलों पर अधिकार कर लिया और पृथ्वी के राजाओं का वध किया।

3) वह दुनिया के छोर तक गया और उसने बहुत-सी जातियों को लूटा। पृथ्वी उसके सामने मौन रही। वह घमण्ड से फूल उठा और अहंकारी हो गया।

4) उसने एक बड़ी सेना तैयार की थी और कितनी ही जातियों के देश और उनके शासक अपने अधीन कर लिये और वे उसे कर देते थे।

5) इसके बाद वह बीमार पड़ा और वह समझ गया कि मृत्यु निकट है।

6) उसने अपने रहते ही उन कुलीन उच्चपदाधिकारियों के बीच अपना राज्य बाँट दिया, जो युवावस्था से उसके साथी थे।

7) जब सिकन्दर को राज्य करते बारह वर्ष हो गये थे, तो उसकी मृत्यु हुई।

8) इसके बाद उसके उच्च पदाधिकारी अपने शासित क्षेत्रों में राज्य करने लगे।

9) उसकी मृृत्यु के बाद उन सब ने अपने सिर पर मुकुट धारण किया और उनके बाद उनके पुत्रों ने बहुत वर्षों तक ऐसा ही किया। उनके कारण पृथ्वी की दुर्गति हो गयी।

10) उन में राजा अंतियोख का पुत्र अंतियोख एपीफानेस बड़ा दुष्ट था वह रोम में बंधक के रूप में रहा चुका था। वह यूनानी साम्राज्य के एक सौ सैंतीसवें वर्ष राजा बना।

11) उन दिनों इस्राएल में ऐसे लोग थे, जो संहिता ही परवाह नहीं करते थे और यह कहते हुए बहुतों को बहकाते थे, "आओं! हम अपने चारों ओर के राष्ट्रों के साथ संधि करें, क्योंकि जब से हम उन से अलग हुए, हमें अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा"।

12) यह बात उन्हें अच्छी लगी।

13) उन में से कई लोग तुरंत राजा से मिलने गये और राजा ने उन्हें गैर-यहूदी जीवन-चर्या के अनुसार चलने की अनुमति दी।

14) इसलिए उन्होंने गैर-यहूदियों के रिवाज के अनुसार येरूसालेम में एक व्यायामशाला बनवायी।

15) उन्होंने अपने को बेख़तना कर लिया और पवित्र विधान को त्याग दिया। वे गैर-यहूदियों से मेल-जोल रखने लगे और पाप के दास बन गये।

16) जब राजा अन्तियोख ने अपना राज्य सुदृढ़ कर लिया, तो उसकी इच्छा हुई कि वह मिस्र का भी राजा बन जाये और इस प्रकार दो राज्यों पर शासन करे।

17) वह रथों, हाथियों, घोडों और बड़े जहाजी बेड़ों की विशाल सेना ले कर मिस्र पहुँचा

18) उसने मिस्र के राजा पतोलेमेउस पर आक्रमण किया। बहुत-से लोग घायल हुए और पतोलेमेउस अंतियोख से डर कर भाग निकला।

19) उसने मिस्र के बहुत-से किले-बंद नगरों पर अधिकार कर लिया और मिस्र का बहुत-सा धन लूटा।

20) अन्तियोख ने मिस्र पर अधिकार करने के बाद वहाँ से लौट कर एक सौ तैतीसवें वर्ष इस्राएल पर आक्रमण किया। वह एक विशाल सेना ले कर येरूसालेम पर चढ़ आया।

21) उसने गर्व के मद में पवित्र स्थान में प्रवेश किया। सोने की वेदी, दीपवृक्ष और उसकी सारी सामग्रियाँ,

22) भेंट की रोटियाँ की मेज़, अर्घ की सुराहियाँ और पात्र, सोने के धूपदान, परदा और मंदिर के बाहरी द्वार पर जड़ा हुआ सोना ले लिया।

23) उसने चाँदी, सोना, बहुमूल्य पात्र और छिपे हुए खजाने, जो उसे मिले यह सब अपने अधिकार में कर लिया।

24) यह सारा धन-माल ले कर वह अपने देश लौट गया। उसने बहुत -से लोगों की हत्या की और गर्व-भरे नारे लगाये।

25) तब इस्राएल में महान् शोक मनाया गया।

26) प्रशासक और नेता कराहते रहे, युवक और युवतियाँ निरुत्साह हो गये और स्त्रियों का सौन्दर्य नष्ट हो गया।

27) हर एक वर शोक मनाता था और नववधू अपने कक्ष में बैठी विलाप करती थी।

28) पृथ्वी अपने निवासियों की दशा कर काँप उठी और याकूब का सारा घराना अपमान से लज्जित हुआ।

29) दो वर्ष बाद राजा ने यूदा के नगरों में एक कर-अधिकारी भेजा। वह एक भारी दल ले कर येरूसालेम आ पहुँचा।

30) उसने धोखा देने के लिए पहले तो लोगों से मीठी-मीठी बातें की। जब लोग आश्वस्त हो गये, तो वह एकाएक नगर पर टूट पड़ा। उसने उसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया और बहुत-से इस्राएलियों का वध किया।

31) उसने नगर लूटा और जला दिया। उसने उसके मकान और उसकी चारदीवारी गिरा दी।

32) शत्रु स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना कर ले गये और उन्होंने पशुओं को भी अधिकार में कर लिया।

33) तब उन्होंने दाऊदनगर के चारों ओर किलों के साथ एक बड़ी सुदृढ़ दीवार बनायी, जो उनका गढ बन गया।

34) उन्होंने वहाँ दुष्ट लोगों को बसाया- ऐसे लोगों को, जो संहिता को पालन नहीं करते थे। वे वहीं सब गये।

35) उन्होंने वहाँ शस्त्र और खाद्य-सामग्री जमा की और येरूसालेम का लूटा हुआ सारा माल वहाँ एकत्रित किया। इस प्रकार वह एक बड़ा फंदा बन गया।

36) वह पवित्र स्थानों के लिए घात-स्थल बन गया और इस्राएल में उसका एक भयानक शत्रु खड़ा हो गया।

37) उन्होंने पवित्र-स्थान के निकट निर्दोष रक्त बहाया औैर पवित्र क्षेत्र को अपवित्र कर दिया।

38) इस कारण येरूसालेम के निवासी भाग खड़े हुए और वह विदेशियों का नगर बन गया। वह अपने ही निवासियों के लिए अपरिचित-जैसा हो गया। उसकी संतान ने उसका त्याग कर दिया।

39) उसका पवित्र-स्थान मरुभूमि की तरह उजड़ गया, उसके पर्व विलाप में, उसके विश्राम-दिवस कलंक में और उसका सम्मान अपमान में बदल गया।

40) वह पहले जितना प्रतिष्ठित था, अब उतना ही अपमानित हुआ और उसकी महिमा शोक में बदल गयी।

41) राजा ने अपने समस्त राज्य के लिए यह लिखित आदेश निकाला कि सब लोग एक ही राष्ट्र बन जायें

42) और सब अपने विशेष विराजों का परित्याग कर दे। सब लोगों ने राजा के आदेश का पालन किया।

43) इस्राएलियों में भी बहुतों ने, देवमूर्तियों को बलि चढ़ा कर और विश्राम दिवस को अपवित्र कर, राजा का धर्म सहर्ष स्वीकार कर लिया।

44) राजा ने येरूसालेम और यूदा के अन्य नगरों में दूतों से कहला भेजा कि वे अपने-अपने यहाँ पृथ्वी की जातियों के विधि-निषेध अपनायें,

45) मंदिर में होम-बलि, यज्ञ और अर्घ न चढ़ाये, विश्राम-दिवस और पर्व न मनायें,

46) मंदिर और मंदिर के सेवकों को अपवित्र कर दे,

47) वेदियाँ, पूजास्थान और देवमूर्ति तैयार करें, सुअरों और अन्य अपवित्र पशुओं की बलि चढाये,

48) अपने बच्चों का खतना न करें और हर प्रकार के दूषण और अशुद्धता से अपने को अपवित्र कर दें।

49) इस तरह वे संहिता भूल जायें और अपनी परंपराओं को बदल दें।

50) जो राजा के इन आदेशों का पालन नहीं करेगा, उसे प्राणदण्ड मिलेगा।

51) उसने अपने राज्य भर के लिए अपनी आज्ञा प्रसारित करायी। उसमें इन बातों के लिए लोगों पर निरीक्षक नियुक्त किये और यूदा के नगरों को आदेश दिया कि हर नगर में बलिदान चढाये जायें।

52) इस तरह बहुत-से लोगों ने इन बातों का पालन किया और प्रभु की संहिता का परित्याग किया। उन्होंने देश में पापाचरण किया

53) और इस्राएलियों को गुप्त स्थानों में छिपने के लिए विवश किया।

54) एक सौ पैतालीसवें वर्ष के किसलेव महीने के पन्द्रहवें दिन राजा ने होम-बलि की वेदी पर उजाड़ का वीभत्स दृश्य (अर्थात् देव-मूर्ति को) स्थापित किया। यूदा के नगरों में चारों ओर देवमूर्तियों की वेदियाँ बनायी गयीं

55) और लोग के घरों के द्वार के सामने तथा चैंको में धूप चढाने लगे।

56) जब उन्हें सहिता की पोथियाँ मिलती थीं, तो वे उन्हें फाड़ कर आग में डाल देते थे।

57) जिसके यहाँ विधान का ग्रन्थ पाया जाता अथवा जो संहिता का पालन करता, उसे राजा के आदेशानुसार प्राणदण्ड दिया जाता था।

58) शक्ति की बागडोर उनके हाथ में थी, इसलिए उन्होंने हर महीने उन इस्राएलियों के साथ वही किया, जिन्हें वे दोषी पाते थे।

59) वे महीने के पच्चीसवें दिन होमबलि की वेदी पर बलिदान चढाते थे।

60 (60-61) जिन माताओं ने अपने बच्चों खतना कराया था, उन्हें राजाज्ञा के अनुसार अपनी गर्दन में लटके शिशुओं के साथ, उनके निकट संबंधियों और खतना करने वाले लोगों के साथ मार दिया जाता।

62) फिर भी बहुत-से इस्राएली दृढ़ बने रहे और उन्होंने दृढ़ संकल्प किया कि वे अशुद्ध भोजन नहीं खायेगे।

63) वे मृत्यु को स्वीकार करते थे, जिससे वे अवैध भोजन खा कर दूषित न हो जायें और पवित्र विधान भंग न करें। इस प्रकार बहुत-से इस्राएली मर गये।

64) ईश्वर का प्रकोप इस्राएल पर छाया रहता था।



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