📖 - मक्काबियों का पहला ग्रन्थ

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अध्याय 07

1) जब सिलूकस का पुत्र देमेत्रियस रोम से लौटा, तो एक सौ इक्यावनवाँ वर्ष चल रहा था। वह अपने कुछ आदमियों के साथ समुद्रतट के एक नगर गया और वहाँ राज्य करने लगा।

2) उसने अपने पूर्वजों के राजमहल में प्रवेश किया और उसकी सेना अंतियोख और लीसियस को गिरफ्तार कर उन्हें उसके सामने उपस्थित करना चाहती थी।

3) उसने यह जान कर कहा, "मैं उनका मुँह भी देखना नहीं चाहता"।

4) इस पर सैनिकों ने उन्हें मार डाला और देमेत्रियस अपने राजसिंहासन पर बैठा।

5) इसके बाद अलकिमस के नेतृत्व में, जो प्रधानयाजक बनना चाहता था, उसके पास सभी निरीश्वरवादी और धर्मत्यागी इस्राएली आये।

6) उन्होंने राजा के पास आ कर लोगों पर यह अभियोग लगाया, "यूदाह और उसके भाइयों ने आपके सभी मित्रों को मार डाला और अपने देश से हमें भी भगा दिया।

7) आप अपने एक विश्वासपात्र व्यक्ति को भेज कर पता लगवायें कि यूदाह ने हमारे और राजा के देश के साथ कैसा अनर्थ किया है। वह व्यक्ति उन्हें तथा उनके सहायकों को दण्ड दिलाये।"

8) राजा ने अपने मित्रों में बक्खीदेस को चुना, जो नदी पार के प्रदेश का राज्यपाल था तथा राज्य भर में सम्मानित और राजा का विश्वासपात्र था।

9) राजा ने उसे तथा विधर्मी अलकिमस को यह वचन दे कर वहाँ भेजा कि अलकिमस वहाँ का प्रधानयाजक बन जायेगा और उसे यह आदेश दिया कि वह इस्राएलियों से बदला चुकाये।

10) वे बड़ी भारी सेना ले कर चल पड़े और यूदा पहुँचे। उन्होंने यूदाह और उसके भाइयों के पास दूतों द्वारा शांति का कपटपूर्ण संदेश भिजवाया था,

11) लेकिन यह देख कर उन्होंने उनकी बातों पर विश्वास नहीं किया कि वे विशाल सेना के साथ आये थे।

12) उस समय अलकिमस और बक्खीदेस के पास शास्त्रियों का एक दल इस उद्देश्य से एकत्र हो गया कि उपस्थित समस्या का न्यायपूर्वक समाधान किया जाये।

13) इस्राएलियों में हसीदी-समुदाय पहला था, जो शांतिपूर्वक समस्या का समाधान चाहता था।

14) उन लोगों का कहना था कि वह याजक, जो सेना से साथ आया है, हारून का वंशज है; इसलिए वह हमारे साथ निश्चय ही अन्याय पूर्ण व्यवहार नहीं करेगा।

15) अलकिमस ने उन्हें शांति का संदेश दिया और शपथ खा कर यह वचन दिया, "हम आप को या आपके मित्रों को कोई हानि नहीं पहुँचायेंगे"।

16) उन्होंने उस पर विश्वास किया और तब उसने उन में साठ व्यक्तियों को गिरफ्तार किया और उन्हें एक ही दिन मार डाला-जैसा कि धर्मग्रंथ में लिखा है-

17) "उन्होंने येरूसालेम के चारों ओर तेरे संतों के शव फेंक दिये और उनका रक्त बहाया। उन को दफनाने के लिए कोई नहीं रहा।"

18) इस पर सब लोगों पर भय और आतंक छा गया और उन्होंने कहा, "उनके पास न तो सत्य है और न न्याय। वे अपने वचन और अपनी शपथ से मुकर गये।"

19) बक्खीदेस येरूसालेम से आगे बढ़ा और उसने बेत-जैथ के पास पड़ाव डाला। वहाँ से उसने आदमी भेज कर उन लोगों में से जो उनके दल में सम्मिलित हो गये थे, और जनता में से भी कई लोगों को गिरफ्तार किया, उनका वध किया और बड़े कुएँ में डलवा दिया।

20) इसके बाद बक्खीदेस देश को अलकिमस के अधीन छोड कर और उसकी सुरक्षा के लिए उसे एक सेना दे कर राजा के पास लौट आया।

21) अलकिमस ने प्रधानयाजकीय पद पाने के लिए बड़ा यत्न किया।

22) वे सब लोग, जो जनता में अशांति फैलाते थे, उसके पीछे हो लिये। उन्होंने यूदा अपने अधिकार में कर लिया और इस्राएल को बड़ी हानि पहुँचायी।

23) यूदाह ने देखा कि अलमिकस और उसके सहचर गैर-यहूदियों से भी अधिक इस्राएलियों के साथ बुरा व्यवहार करते थे,

24) इसलिए उसने यूदा के सब प्रदेशों का दौरा करते हुए धर्मत्यागी यहूदियों से बदला चुकाया और उन्हें देश के बाहर निकलने से रोक दिया।

25) जब अलकिमस ने देखा कि यूदाह और उसके आदमी शक्तिशाली होते जा रहे हैं और यह समझ लिया कि वह भविष्य में उनका सामना नहीं कर पायेगा तो वह राजा के पास लौट गया और उन पर भारी अपराधों का अभियोग लगाया।

26) इसलिए राजा ने प्रसिद्ध सेनापति निकानोर को, जो यहूदियों का घोर शत्रु था, वहाँ भेजा और उसे यहूदियों का सर्वनाश करने का आदेश दिया।

27) निकानोर एक बड़ी सेना ले कर येरूसालेम आया। उसने धोखा देने के लिए यूदाह और उसके भाइयों को शांति का यह कपटपूर्ण संदेश भेजा,

28) "मेरे और आपके बीच लडाई नहीं होनी चाहिए। इसलिए मैं अपने कुछ लोगों के साथ आप लोगों से शांतिपूर्वक मिलने आऊँगा।"

29 ्रइस पर वह यूदाह से मिलने गया और उन दोनों ने एक दूसरे का मित्र-भाव से अभिवादन किया; किंतु शत्रु यूदाह को जबरदस्ती उठा ले जाना चाहते थे।

30) यूदाह यह देख कर कि निकानोर उसके साथ विश्वासघात करने के विचार से उनके पास आया है, पीछे हट गया और उसने उस से फिर भेंट करने से इनकार किया।

31) इधर जब निकानोर को पता चला कि यूदाह उसका उद्देश्य समझ गया हैं, तो वह उस से लड़ने निकल पड़ा खफ़रसलामा के निकट वे एक दूसरे के विरुद्ध आ डटे।

32) निकानोर के आदमियों में लगभग पाँच सौ मारे गये; शेष लोग दाऊदनगर भाग खडे हुए।

33) इसके बाद निकानोर सियोन पर्वत गया। कुछ याजक और लोगों के कई नेता सद्भाव से उसे नमस्कार करने मंदिर के पवित्र क्षेत्र से बाहर आये। वे उसे राजा के कल्याण के लिए चढ़ायी जाने वाली बलि दिखाना चाहते थे।

34) लेकिन उसने उसकी हँसी उड़ायी, उनका अपमान किया और घमण्ड भरी बातें की।

35) फिर उसने गुस्से में यह शपथ लीः “इस बार यदि यूदाह और उसकी सेना तुरंत मेरे हाथ में नहीं दी जाती, तो मैं सकुशल लौटने पर यह मंदिर जला कर रहूँगा"। ऐसा कह वह क्रुद्ध हो कर वहाँ से चल पड़ा।

36) इसके बाद याजक अंदर गये और बलि-वेदी और मंदिर के सामने खडे़ हो कर सजल नेत्रों से कहने लगे,

37) "ईश्वर! तूने यह मंदिर इसलिए चुना था कि तेरा नाम यहाँ प्रतिष्ठित हो और यह तेरी प्रजा के लिए प्रार्थना और विनय का घर हो।

38) अब तू ही इस व्यक्ति और इसकी सेना से बदला ले। वे तलवार के घाट उतारे जायें। याद रख कि इन लोगों ने तेरी निंदा किस तरह की है। अब इन्हें यहाँ न रहने दे"

39) निकानोर येरूसालेम से चल पड़ा और उसने बेत-होरोन के निकट पडाव डाला। यहाँ सीरिया से एक और सैनिक दल उस से आ मिला।

40) इधर यूदाह तीन हजार आदमियों के साथ अदास के पास पड़ाव डाले पडा था। यूदाह ने इस प्रकार प्रार्थना की:

41) "एक बार जब राजकीय दूतों ने तेरी निंदा की थी, तो तेरा एक देवदूत आया था और उनके एक लाख पचासी हजार लोगों को मार गिराया था।

42) तू आज भी उसी प्रकार हमारे सामने इसकी सेना का विनाश कर, जिससे अन्य लोग यह जान जायें कि उसने तेरे पवित्र स्थान की निंदा की है। तू उसके कुकर्म के अनुसार उसका न्याय कर।"

43) इसके बाद दोनों सेनाओं में युद्ध छिड़ गया। अदार मास की तेरहवीं तिथि थी। निकानोर की सेना की करारी हार हो गयी और वह लडाई के आरंभ में ही मारा गया।

44) जैसे ही निकानोर के सैनिकों ने देखा कि वह गिर गया है, वे अपने शस्त्र फेंक कर भाग खड़े हुए।

45) यहूदी अदामा से गेजेर तक दिन भर तुरहिया बजाते हुए उनके पीछा करते रहे।

46) तुरहियाँ सुन कर लोगों ने यहूदिया के आसपास के गाँवों से आ कर सैनिकों को घेरा और उन्हें तलवार के घाट उतारा। उन में एक भी जीवित नहीं रहा।

47) उनका माल लूटा गया, निकानोर का सिर और उसका दाहिना हाथ, जिसे उसने गर्व से ऊपर उठाया था, काट दिया गया और उन्हें ले जा कर येरूसालेम के पास लटका दिया गया।

48) लोगों को अपार आनंद हुआ और उन्होंने वह दिन महापर्व के रूप में मनाया।

49) यह निश्चित हुआ कि उस दिन, अर्थात् अदार मास की तेरहवीं तिथि के प्रति वर्ष उत्सव मनाया जाये।

50) इसके बाद कुछ दिन यूदा में शांति रही।



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