📖 - मक्काबियों का पहला ग्रन्थ

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अध्याय 11

1) मिस्र के राजा ने एक विशाल सेना तैयार की, जो समुद्रतट के रेतकणों की तरह असंख्य थी और उसने बहुत-सी नावें भी तैयार की। उसने सोचा कि वह धोखे से सिकन्दर के राज्य पर अधिकार कर उसे अपने राज्य में मिला ले।

2) वह शान्ति की बातें करते हुए सीरिया गया। नगरों के निवासियों ने उसके लिए अपने फाटक खोले और उसका स्वागत किया; क्योंकि राजा सिकन्दर ने आज्ञा दी थी कि वे उसके ससुर के लिए ऐसा करें।

3) लेकिन पतोलेमेउस जिस किसी नगर में प्रवेश करता था, उस में अपना एक दल छोड़ देता।

4) जब वह अज़ोत के पास आया, लोगों ने उसे दागोन को जलाया हुआ मन्दिर दिखाया। उन्होंने अज़ोत और उसके आसपास के खँडहर और लोगों की वे अस्थियाँ दिखायीं, जो लड़ाई में जलायी गयी थीं; क्योंकि उन्होंने उसके रास्ते पर ही इनके ढेर लगा दिये थे।

5) लोगों ने योनातान की शिकायत करते हुए राजा को वह सब बताया, जो उसने किया था। किन्तु राजा मौन रहा।

6) योनातान राजा से मिलने बड़ी धूम-धाम से याफ़ा आया। उन्होंने एक दूसरे को नमस्कार किया और वहीं एक साथ रात बितायी।

7) योनातान राजा के साथ एलूथरस नदी के पास तब गया और उसके बाद येरूसालेम लौट गया।

8) राजा पतोलेमेउस ने मन में सिकन्दर के विरुद्ध षड्यन्त्र रच कर सिलूकिया तक समुद्रतट के सब नगरों पर अधिकार कर लिया।

9) उसने दूतों द्वारा राजा देमेत्रियस को यह कहला भेजाः “आइए, हम परस्पर सन्धि कर लें। मैं अपनी पुत्री आप को दे दूँगा, जो सिकन्दर की पत्नी है और आप अपने पिता के राज्य के राजा बन जायेंगे।

10) मुझे दुःख है कि मैंने उसे अपनी पुत्री दी। उसने मेरा वध करना चाहा।

11) उसने सिकन्दर पर यह अभियोग लगाया, क्योंकि वह उसका राज्य छीनना चाहता था।

12) उसने उस से अपनी पुत्री वापस ले ली और उसे देमेत्रियस को दे दिया। उसने सिकन्दर से अपनी मित्रता भंग कर दी और दोनों की शत्रुता स्पष्ट हो गयी।

13) पतोलेमेउस ने अन्ताकिया में प्रवेश कर एशिय़ा का राजमुकुट अपने सिर पर धारण किया। इस तरह उसने दो मुकुट धारण कर लिये - एक मिस्र का और दूसरा एशिया का।

14) उन दिनों राजा सिकन्दर किलीकिया में था, क्योंकि उस प्रदेश के लोगों ने विद्रोह किया था।

15) सिकन्दर को जैसे ही यह पता चला, वह उसके विरुद्ध लड़ने चला। पतोलेमेउस ने एक विशाल सेना के साथ उसका सामना किया और उसे भगा दिया।

16) सिकन्दर शरण के लिए अरब भागा और पतोलेमेउस पूर्ण रूप से विजयी हुआ।

17) अरबी ज़ब्दीएल ने सिकन्दर का सिर कटवा कर उसे पतोलेमेउस के पास भेज दिया।

18) इसके तीसरे ही दिन राजा पतोलेमेउस की भी मृत्यु हो गयी और उसने जो दल किलाबन्द नगरों में रख छोड़े थे, वहाँ के निवासियों ने उनकी हत्या कर दी।

19) देमेत्रियस एक सौ सड़सठवें वर्ष राजा बना।

20) उन्हीं दिनों योनातान ने येरूसालेम पर अधिकार करने के लिए यहूदिया के लोगों को इकट्ठा किया। उसने उसके विरुद्ध बहुत सारे युद्ध-यन्त्रों का निर्माण किया।

21) इस पर कुछ धर्मत्यागी यहूदी, जो अपनी जाति से बैर रखते थे, राजा के पास गये और उसे से बोले कि योनातान ने गढ़ को घेर लिया है।

22) यह सुनकर राजा क्रुद्ध हुआ और शीघ्र ही चलकर पतोलेमाइस आ पहुँचा। उसने चिट्ठी भेज कर योनातान को आदेश दिया कि वह घेरा उठा कर जितनी जल्दी हो सके, उस से मिलने पतोलेमाइस आये।

23) योनातान ने यह सुन कर भी घेरा बनाये रखने को कहा और इस्राएल के कुछ नेताओं और याजकों को ले कर स्वयं जोखिम का सामना करने गया।

24) वह उपहार के रूप में चाँदी-सोना, वस्त्र और अन्य बहुत-सी चीज़ें ले कर राजा के पास पतोलेमाइस गया। इस प्रकार वह उसका कृपापात्र बन गया।

25) तब कुछ धर्मत्यागी यहूदी उस पर अभियोग करने आये,

26) किन्तु राजा ने अपने पहले के शासकों की तरह अपने सभी मित्रों के सामने योनातान का सम्मान किया।

27) उसने प्रधानयाजक के पद पर उसकी नियुक्ति की पुष्टि की, जो उपाधियाँ उसे प्राप्त हो चुकी थीं, उन्हें फिर प्रदान किया और उसका नाम अपने घनिष्ट मित्रों की सूची में लिखवाया।

28) योनातान ने राजा से निवेदन किया कि वह यहूदिया और समारिया के तीन जनपदों को कर-मुक्त कर दे और उस से प्रतिज्ञा की कि वह उसे तीन मन (द्रव्य) दिया करेगा।

29) राजा ने यह सब स्वीकार कर लिया और योनातान को इस सम्बन्ध में यह पत्र दिया:

30) भाई योनातान और यहूदियों को राजा देमेत्रियस का नमस्कार।

31) हमने आप लोगों के विषय में अपने सम्बन्धी लस्थेनस को जो पत्र भेजा है, जिससे आप उसकी जानकारी प्राप्त करें:

32) पिता लस्थेनस को राजा देमेत्रियस का प्रणाम।

33) यहूदी हमारे साथ मित्रता रखते हैं और वे आज तक हमारे अधिकारों की रक्षा करते आ रहे हैं। इसलिए हमने निश्चय किया है कि हमारे प्रति उनका जो सद्भाव है, हम उनका मूल्य चुकायें।

34) हमने उन्हें यहूदिया प्रान्त दिया हैं; साथ ही एफ्ऱईम, लिद्दा और रामतईम के तीनों जनपद और उनके निकटवर्ती भाग समारिया से अलग कर यहूदिया प्रान्त में येरूसालेम के याजकों के लिए मिला दिये जाते हैं। ये जनपद उन्हें अपनी भूमि और अपने फलों की उपज पर परम्परागत वार्षिक राज-कर के बदले में दिये जाते हैं।

35) अन्य सभी दशमांश और कर, नमक का महसूल, राज-उपहार-इन सब से उन्हें मुक्त किया जाता है।

36) इस में आज से कभी भी कोई परिवर्तन नहीं होगा।

37) इस पत्र की एक प्रतिलिपि तैयार करा कर योनातान को दे दें, जिससे वह पवित्र पर्वत के किसी सार्वजनिक स्थान पर रखा जायें।

38) जब राजा देमेत्रियस ने देखा कि उसके शासन में अब देश में शान्ति है और कोई उसका विरोध नहीं कर रहा है, तो उसने उन ग़ैर-यहूदियों के सिवा, जिन्हें उसने द्वीपों से ला कर भरती किया था, अपनी सारी सेना को सेवा से मुक्त कर, सभी को अपने-अपने घर जाने को कहा। इस से उसके पूर्वजों के सभी सैनिक उस से बैर करने लगे।

39) जब त्रिफ़ोन ने, जो सिकन्दर का पक्षधर, रह चुका था, यह देखा कि सभी सैनिक देमेत्रियस के विरुद्ध भुनभुना रहे हैं, तो वह अरबी इमलकुए के पास गया, जो सिकन्दर के पुत्र कुमार अन्तियोख को दीक्षा दे रहा था।

40) उस ने उसे अनुरोध किया कि वह उसे उस लड़के को दे दे, जिससे वह अपने पिता की जगह राजा बने। उसने उसे यह सब बताया कि देमेत्रियस ने क्या-क्या किया और यह भी कि सैनिक उस से कैसे बैर करते थे। वह बहुत दिनों तक रुका रहा।

41) इस बीच योनातान ने राजा देमेत्रियस से निवेदन किया कि वह येरूसालेम के गढ़ और अन्य किलाबन्द नगरों से अपने सैनिक हटा लें; क्योंकि वे इस्राएल के विरुद्ध लड़ते थे।

42) देमेत्रियस ने योनातान को कहला भेजाः “मैं आप और आपकी जाति के लिए न केवल यह करूँगा, बल्कि उचित अवसर आने पर आपका और आपकी जाति का सम्मान करूँगा।

43) किन्तु इस समय आप ऐसे सैनिक भेजें, जो मेरी ओर से युद्ध करें, क्योंकि मेरी सारी सेना मेरे विरुद्ध हो गयी है“

44) इसलिए योनातान ने तीन हज़ार युद्धकुशल आदमियों को अन्ताकिया भेजा। जब वे राजा के पास पहुँचे, तो राजा बहुत प्रसन्न हुआ।

45) लेकिन नगर के एक लाख बीस हज़ार पुरुष राजा का वध करने के लिए जमा हो गये।

46) राजा ने अपने महल में शरण ली और नगरवासी गलियों पर अधिकार कर लड़ने लगे।

47) राजा ने यहूदियों को सहायता के लिए बुलाया। वे सब उसके पास आये और पूरे नगर में चारों ओर फैल गये। उन्होंने उसी दिन एक लाख आदमियों का वध किया।

48) उन्होंने उसी दिन पूरा नगर लूटा और उस में आग लगा दी। इस प्रकार उन्होंने राजा की रक्षा की।

49) जब नगरवासियों ने देखा कि नगर पर यहूदियों का अधिकार हो गया और अब वे जैसा चाहें, वैसा कर सकते हैं, तो उनका साहस टूट गया और उन्होंने राजा से दया की याचना की। उन्होंने कहा,

50) “अपना दाहिना हाथ बढ़ा कर हमारी सहायता कीजिए। यहूदी हमसे और हमारे नगर से लड़ना बन्द करें।“

51) उन्होंने अपने शस्त्र डाल कर सन्धि कर ली। राजा और उसके राज्य के सभी लोगों की ओर से यहूदियों का बड़ा सम्मान किया गया और वे लूट से लद कर येरूसालेम लौट गये।

52) जब राजा देमेत्रियस राजसिंहासन पर फिर बैठ गया और देश भर में शान्ति हो गयी,

53) तो उसने अपना वचन भंग कर दिया और योनातान के प्रति उसका रुख़ बदल गया। उसने उसके किये हुए उपकारों का प्रतिदान नहीं दिया और उसे बहुत तंग करने लगा।

54) इन घटनोओं के बाद त्रीफ़ोन अन्तियोख के साथ लौटा, जो अभी बहुत छोटा था। उसने उसे राजा बनाया और उसके सिर पर राजमुकुट पहना दिया।

55) उसके पास वे सभी सैनिक आये, जिन्हें देमेत्रियस ने निकाल दिया था और उसके विरुद्ध लड़ने लगे। देमेत्रियस पराजित हो कर भाग निकला।

56) त्रीफ़ोन ने हाथियों को अपने अधिकार में किया और अन्ताकिया को जीता।

57) तब कुमार अन्तियोख ने योनातान को यह लिख: “मैं आप को प्रधानयाजकीय पद पर स्थायी करता, चारों जनपदों पर नियुक्त करता और आप को राजा के मित्रों में सम्मिलित करता हूँ“।

58) उसने उसे खाने-पीने के लिए सोने के बरतन और सोने के पात्र भेजे तथा उसे सोने के पात्रों में पीने, बैंगनी वस्त्र पहनने और सोने का बकसुआ लगाने की अनुमति दी।

59) उसने उसके भाई सिमोन को तीरुस की निसेनी से ले कर मिस्र की सीमा तक के देश का सेनापति नियुक्त किया।

60) इसके बाद योनातान ने चल कर नदी के पार के प्रदेश और उसके नगरों का भ्रमण किया। सीरिया की सारी सेना उसकी सहायता करने आयी। वह अश्कलोन आया, तो नागरिकों ने उसका सादर स्वागत किया।

61) वह वहाँ से आगे गाज़ा तक गया, लेकिन गाज़ावासियों ने फाटक नहीं खोले। इसलिए उसने नगर को घेर लिया, उसके आसपास की जगहों को लूटा और उसके बाद उन में आग लगा दी।

62) गाज़ावासियों ने योनातान से प्रार्थना की और उसने उन से सन्धि कर ली। उसने उनके कुलीन पुत्रों को बन्धक के रूप में ले लिया और उन्हें येरूसालेम भेजा। इसके बाद उसने दमिश्क तक उस क्षेत्र का भ्रमण किया।

63) योनातान ने सुना कि देमेत्रियस के सेनापति एक बड़ी सेना के साथ गलीलिया के देश तक आ गये हैं और उसे अपदस्थ करना चाहते हैं।

64) वह अपने भाई सिमोन को अपने देश में छोड़ कर उनका सामना करने चला।

65) सिमोन ने बेत-सूर के पास पड़ाव डाला था। वह बहुत दिनों तक उसके साथ लड़ता रहा और उसे घेर लिया।

66) अन्त में वहाँ के निवासी उसकी अधीनता स्वीकार करने को तैयार हो गये और उसने उन से सन्धि कर ली। उसने उन्हें नगर से निकाल कर उस पर अधिकार कर लिया और उस में एक रक्षक-सेना को छोड़ रखा।

67) योनातान अपनी सेना के साथ गन्नेसरेत सागर के किनारे पड़ाव डालने के बाद मुँह-अँधेरे हासोर के मैदान में पहुँचा।

68) तभी गै़र-यहूदियों की सेना उन्हें मैदान में दिखाई पड़ी। उन्होंने पहाड़ियों की ओट में कुछ सैनिक घात में बिठा रखे थे।

69) जब योनातान ने सेना का सामना किया, तो जो घात में बैठे थे, वे निकल पड़े और उस पर आक्रमण करने लगे।

70) योनातान के सभी सैनिक भाग खड़े हुए। अबसालोम के पुत्र मत्तथ्या और ख़ल्फ़ी के पुत्र यूदा के सिवा जो सेनापति थे, उन में एक भी पीछे नहीं रहा।

71) योनातान ने अपने कपड़े फाड़ दिये, सिर पर राख डाल और प्रार्थना की।

72) इसके बाद वह लड़ाई में कूद पड़ा। शत्रु पीछे हटने और भागने लगे।

73) जब उसके आदमियों ने, जो भाग रहे थे, यह देखा, तो वे फिर उसके पास लौट आये और शत्रुओं को केदेश के उनके पड़ाव तक खदेड़ ले गये। उन्होंने वहाँ पड़ाव डाला।

74) उस दिन लगभग तीन हज़ार गै़र-यहूदी सैनिक मारे गये। इसके बाद योनातान येरूसालेम लौट आया।



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