📖 - प्रवक्ता-ग्रन्थ (Ecclesiasticus)

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अध्याय 31

1) धन के कारण अनिद्रा मनुष्य को छिजाती है। सम्पत्ति की चिन्ता मनुष्य को सोने नहीं देती।

2) जीविका की चिन्ता आँख लगने नहीं देती, जिस प्रकार भारी रोग निद्रा हर लेता है।

3) धनी सम्पत्ति एकत्र करने में परिश्रम करता और यदि विश्राम करता, तो भोग-विलास में डूब जाता है।

4) दरिद्र जीवन-निर्वाह के लिए परिश्रम करता और यदि विश्राम करता, तो तंगहाल हो जाता है।

5) जिसे सोने का मोह होता है, वह धार्मिक नहीं रह पाता और जो लाभ के पीछे पड़ता, वह पथभ्रष्ट हो जोयगा।

6) सोने के कारण अनेकों का पतन हो गया और उनका अचानक विनाश हुआ है।

7) जो सोने के लालची हैं, वह उनके लिए फन्दा बनता है; बहुत-से मूर्ख उस में फँस जाते हैं।

8) धन्य है वह धनवान्, जो निर्दोष रह गया और सोने के पीछे नहीं दौड़ा!

9) वह कौन है? हम उसे धन्य कहेंगे, क्योंकि उसने अपने लोगों के बीच प्रशंसनीय आचरण किया।

10) जो उस परीक्षा में निर्दोष सिद्ध हुआ, उसे सदा बना रहने वाला यश प्राप्त होगा। वह पाप कर सकता था, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया! वह बुराई कर सकता था, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया!

11) उसकी समृद्धि सदा बनी रहेगी और सभा उसके उपकारों का बखान करेगी।

12) यदि तुम किसी दावत की मेज पर बैठो, तो मुँह फाड़ कर यह मत कहो:

13) "उस पर कितने व्यंजन रखे हुए हैं?"

14) याद रखो कि ईर्ष्यालु आँख बुरी है। प्रभु को ईर्ष्या से घृणा हैं।

15) संसार में ईर्ष्यालु आँख से बुरा क्या है? इसलिए वह हर समय आँसू बहाती है।

16) यदि कोई किसी चीज की ओर देखता, तो उसकी ओर हाथ मत बढ़ाओे

17) और थाली में साथी का हाथ मत छुओ।

18) विचार कर देखो कि वह क्या चाहता है और सावधानी से काम करो।

19) जो तुम्हारे सामने रखा जाता है, उसे भद्र मनुष्य की तरह खाओ। अधिक मत खाओे, जिससे लोग तुम से घृणा न करें।

20) शिष्टाचार के लिए सब से पहले खाना बन्द करो, पेटू मत बनो; लोग इसका बुरा मानते हैं।

21) यदि तुम अनेक लोगों के साथ खाने पर बैठो, तो सबसे पहले हाथ मत बढ़ाओे।

22) भद्र मनुष्य कम से सन्तोष पाता है, इस प्रकार वह आराम से सो जाता है।

23) जो अधिक खाता है, वह नहीं सो पाता और उसे अपचन और पेट का दर्द होता है।

24) परिमित भोजन के बाद अच्छी नींद आती और सुबह उठने पर मन में ताज़गी रहती है।

25) यदि तुम को अधिक खाने के लिए बाध्य किया गया हो, तो उठकर वमन करो और तुम्हारा जी हल्का होगा।

26) पुत्र! मेरी सुनो और मेरा तिरस्कार मत करो। तुम बाद में मेरी समझोगे।

27) तुम अपने सब कामों में संयम रखो और तुम कभी बीमार नहीं होगे।

28) जो भोज दिया करता है, उसकी सभी लोग प्रशंसा करते हैं और उसकी उदारता की ख्याति बनी रहती है।

29) जो भोजन देने में कृपण है, उसकी सभी लोग निन्दा करते हैं और उसकी कृपणता की बदनामी बनी रहती है।

30) अंगूरी पीने में अपनी वीरता का प्रदर्शन मत करो; क्योंकि अंगूरी ने बहुतों का विनाश किया।

31) भट्टी इस्पात के उत्कर्ष की परीक्षा लेती है। इसी प्रकार जब घमण्डी झगड़ते हैं, तो अंगूरी हृदयों की परीक्षा लेती है।

32) जेा व्यक्ति संयम से पीता हैं, उसके लिए अंगूरी जीवन-जैसी है।

33) जिसके पास अंगूरी नहीं, उसे जीवन से क्या लाभ?

34) मृत्यु ही हम मनुष्यों को जीवन से वंचित करती है।

35) नषे के लिए नहीं, बल्कि आनन्द के लिए प्रारम्भ से अंगूरी की सृष्टि हुई है।

36) अवसर के अनुसार संयम से पी गयी अंगूरी हृदय को उल्लास और आत्मा को आनन्द प्रदान करती है।

37) जो व्यक्ति संयम से अंगूरी पीता है, वह तन-मन से स्वस्थ रहता है।

38) जो व्यक्ति असंयम से अंगूरी पीता है, वह क्रोध एवं झगड़ा किया करता

39) और उसकी आत्मा कटुता से भर जाती है।

40) नषा मूर्ख को क्रोध भड़काता और उसे हानि पहुँचाता है। वह उसकी शक्ति घटाता और उसके घाव बढ़ाता है।

41) अंगूरी पीते समय अपने पड़ोसी को मत धिक्कारो और जब वह आनन्दित हो जाता, तेा उसका तिरस्कार मत करो।

42) तुम उसे मत डाँटो और अपने प्रश्नों से उसे तंग मत करो।



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