📖 - अय्यूब (योब) का ग्रन्थ

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अध्याय 11

1) तब नामाती सोफर ने उत्तर देते हुए कहा:

2) क्या इस बकवाद का उत्तर नहीं दिया जायेगा? क्या यह बातूनी निर्दोष माना जायेगा?

3) क्या तुम्हारा बकवाद लोगों को निरुत्तर कर देगा? तुम उपहास करोगे, तो क्या कोई तुम को नहीं डाँटेगा?

4) तुमने ईश्वर से कहा, "मैं अपने को निर्दोष मानता हूँ और मैं मेरी दृष्टि से भी निर्दोष हूँ"।

5) ओह! कितना अच्छा होता कि ईश्वर कुछ कहता और अपने शब्दों में तुम्हें उत्तर देता!

6) कि वह तुम पर अपनी प्रज्ञा का रहस्य प्रकट करता- क्योंकि वह मनुष्य की समझ से परे है- तो तुम जान जाते कि ईश्वर तुम्हारे अपराध का लेखा माँगता है।

7) क्या तुम ईश्वर के रहस्यों की थाह ले सकते हो? क्या तुम सर्वशक्तिमान् की पूर्णता समझ सकते हो?

8) वह आकाश से भी ऊँची है- तुम क्या कर सकते हो? वह अधोलोक से भी गहरी है- तुम क्या जानते हो?

9) वह पृथ्वी से भी लंबी, समुद्र से भी विस्तृत है!

10) यदि वह आ कर तुम को बंदी बनाये और न्यायालय में बुलाये, तो कौन विरोध करेगा?

11) क्योंकि वह कपटियों को पहचानता और सहज ही अधर्म भाँपता है।

12) मूर्ख के मुँह से विवेकपूर्ण बात नहीं निकलती। जंगली गधी से मनुष्य का बच्चा पैदा नहीं होता।

13) तुम ईश्वर की ओर अभिमुख हो जाओं, उसके सामने अपने हाथ पसारो।

14) यदि तुमने पाप किया, तो उसे दूर फेंको; और अधर्म को अपने यहाँ न रहने दो।

15) तब तुम गौरव से अपना सिर ऊपर उठाओगे और निडर हो कर दृढ़ बने रहोगे।

16) तुम अपनी विपत्ति भुला दोगे, उसे उस पानी की तरह याद करोगे, जो बह गया है।

17) तुम्हारा जीवन दोपहर के प्रकाश की तरह, तुम्हारा अंधकार उषा की तरह उज्जवल होगा।

18) आशा के कारण तुम सुरक्षा का अनुभव करोगे। तुम चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर निश्चित लेट जाओगे।

19) तुम विश्राम करोगे और कोई तुम्हें नहीं डरायेगा। तुम्हारी कृपादृष्टि चाहने वालों की कमी नहीं होगी।

20) किंतु दुष्टों की आँखें धुँधली पड़ जायेगी, उन्हें कहीं भी शरण नहीं मिलेगी। मृत्यु ही उनकी एकमात्र आशा होगी।



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