📖 - अय्यूब (योब) का ग्रन्थ

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अध्याय 19

1) अय्यूब ने उत्तर देते हुए कहाः

2) तुम लोग कब तक मुझे सताते रहोगे और अपने शब्दों से मुझे रौंदते रहोगे

3) तुमने दस बार मेरा अपमान किया। क्या तुम को मुझे सताते हुए लज्जा नहीं?

4) यदि मैं सचमुच भटक गया, तो उस से तुम को क्या?

5) यदि तुम अपने को मुझ से बड़ा प्रमाणित करना और मेरी दुर्दशा के कारण मेरी निंदा करना चाहते हो,

6) तो यह जान लो कि ईश्वर ने मेरे साथ अन्याय किया और मुझे अपने जाल में फँसाया है।

7) यदि मैं ’अत्याचार! अत्याचार!’ की आवाज लगाता, तो कोई नहीं सुनता, मैं दुहाई देता हूँ, किंतु मेरे साथ अन्याय होता रहता है।

8) उसने मेरा मार्ग बंद कर दिया, मैं आगे नहीं बढ सकता। उसने मेरा पथ अंधकार से ढक दिया।

9) उसने मेरी प्रतिष्ठा मुझ से छीन ली है, उसने मेरे सिर का मुकुट उतार दिया है।

10) वह चारों ओर से मेरी जड़ काटता है, उसने मेरी आशा का वृक्ष उखाड़ा है।

11) उसका क्रोध मुझ पर भड़क उठा, उसने मेरे साथ-शत्रु जैसा व्यवहार किया।

12) उसके सैनिक मेरी ओर आगे बढ़ते हैं, वे मेरे पास तक का मार्ग बनाते और मेरे तम्बू की घेराबंदी करते हैं।

13) उसने मेरे भाई-बहनों को मुझ से दूर कर दिया। मेरे परिचित मुझे पराया समझते हैं,

14) मेरे संबंधी मुझे छोड़ कर चले गये, मेरे मित्रों ने मुझे भुला दिया।

15) मेरे अतिथि और दासियाँ मुझे परदेशी समझते हैं, मैं उनकी दृष्टि में अपरिचित बन गया हूँ।

16) मैं अपने नौकर को बुलाता हूँ, वह उत्तर तक नहीं देता, यद्यपि मैं उस से विनयपूर्वक निवेदन करता हूँ।

17) मेरी सांँस से मेरी पत्नी को घृणा होती है, मेरे अपने पुत्र मुझे घृणित समझते हैं।

18) छोकरे भी मेरी हंसी उडाते हैं, जब मैं उठ खड़ा होता हूँ, तो वे मेरा उपहास करते हैं।

19) मेरे पुराने मित्र मेरा तिरस्कार करते, मेरे आत्मीय मुझ से मुँह मोड़ते हैं।

20) मेरी चमड़ी मेरी हड्डियों से चिपक गयी, मैं मृत्यु से बाल-बाल बचा हूँ।

21) मेरे मित्रों! मुझ पर दया करो! दया करो! क्योंकि प्रभु के हाथ ने मेरा स्पर्श किया है।

22) तुम ईश्वर की तरह मुझे क्यों सताते हो? तुम मुझे क्यों निगलना चाहते हो?

23 (23-24) ओह! कौन मेरे ये शब्द लिखेगा? कौन इन्हें लोहे की छेनी और शीशे से किसी स्मारक पर अंकित करेगा? इन्हें सदा के लिए चट्टान पर उत्कीर्ण करेगा?

25) मैं यह जानता हूँ कि मेरा रक्षक जीवित हैं और वह अंत में पृथ्वी पर खड़ा हो जायेगा।

26) जब मैं जागूँगा, मैं खड़ा हो जाऊँगा, तब मैं इसी शरीर में ईश्वर के दर्शन करूँगा।

27) मैं स्वयं उसके दर्शन करूँगा, मेरी ही आँखे उसे देखेंगी। मेरा हृदय उसके दर्शनों के लिए तरसता है।

28) यदि तुम सोचते हो, "हम उसे किस प्रकार सतायें क्योंकि वह अपनी दुर्गति का कारण है"

29) तो तुम अपनी तलवार से सावधान रहो; क्योंकि तुम्हारी क्रूरता तलवार के दण्ड के योग्य है। तब तुम जान जाओगे कि न्याय होता है।



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