📖 - यिरमियाह का ग्रन्थ (Jeremiah)

अध्याय ==>> 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- 15- 16- 17- 18- 19- 20- 21- 22- 23- 24- 25- 26- 27- 28- 29- 30- 31- 32- 33- 34- 35- 36- 37- 38- 39- 40- 41- 42- 43- 44- 45- 46- 47- 48- 49- 50- 51- 52- मुख्य पृष्ठ

अध्याय 02

1) प्रभु की वाणी मुझे यह कहते हुए सुनाई पड़ी -

2) “जाओ और येरूसालेम को यह सन्देश सुनाओ। प्रभु यह कहता हैः मुझे तेरी जवानी की भक्ति याद है, जब तू मुझे नववधू की तरह प्यार करती थी। तू मरुभूमि में, बंजर भूखण्ड में मेरे पीछे-पीछे चलती थी।

3) उस समय इस्राएल प्रभु की अपनी पवित्र वस्तु था, उसकी फ़सल के प्रथम फल। जो उस में कुछ लेने का साहस करते थे, उन्हें दण्ड दिया जाता था, उन पर विपत्ति आ पड़ती थी।“ यह प्रभु की वाणी है।

4) याकूब के घरानो! इस्राएल के सब वंशजो! प्रभु की बात सुनो।

5) प्रभु यह कहता है, “तुम्हारे पूर्वजों ने मुझ में क्या दोष पाया कि वे मुझे छोड़ कर निस्सार मूर्तियों के अनुयायी बने और स्वयं निस्सार बन गये?

6) उन्होंने यह नहीं पूछा कि वह प्रभु कहाँ है, जो हमें मिस्र देश से निकाल लाया, जो उस उजाड़ प्रदेश में हमारा पथप्रदर्शन करता था, जहाँ मरुस्थल और खड्ड थे, जहाँ सूखा और अन्धकार था, जहाँ न तो कोई गुज़रता या निवास करता था।

7) में तुम लोगों को एक उपजाऊ भूमि में ले आया। मैंने तुम्हें उसके उत्तम फलों से तृप्त किया। किन्तु तुम लोगों ने उस में प्रवेश करते हुए उसे अपवित्र कर दिया, जिससे मुझे अपनी विरासत से घृणा हो गयी है।

8) याजकों को प्रभु की कोई चिन्ता नहीं थी। संहिता के शास्त्री मेरी कोई परवाह नहीं करते थे। शासक मेरे विरुद्ध विद्रोह करते थे। नबी, बाल के नबी बन कर, ऐसे देवताओं के अनुयायी हो जाते थे, जिन से कोई लाभ नहीं।“

9) प्रभु कहता है, “मैं तुम लोगों पर दोष लगाऊँगा, तुम पर और तुम्हारे पुत्रों के पुत्रों पर।

10) कित्ती जाति के द्वीपों को जा कर देखो, केदार प्रेदश में दूत भेज कर यह पता लगाओ कि क्या वहाँ कभी ऐसी बात हुई है।

11) क्या कभी किसी राष्ट्र ने अपने देवताओं को बदला? और वे तो देवता हैं ही नहीं, किन्तु मेरी प्रजा ने अपने ऐश्वर्यमय ईश्वर के बदले निस्सार देवताओं को अपनाया।

12) आकाश इस पर आश्चर्य करे और विस्मित हो कर काँपें।“ यह प्रभु की वाणी है।

13) “मेरी प्रजा ने दो अपराध कर डालेः उसने मुझे, संजीवन जल के स्त्रोत को त्याग दिया और अपने लिए ऐसे कुण्ड बनाये, जिन में दरारें हैं और जिन में पानी नहीं ठहरता।

14) “इस्राएल दास नहीं है, वह दासता में नहीं जन्मा है, तो वह क्यों लूट का शिकार हुआ?

15) सिंह उसके विरुद्ध गरजते हैं, वे उसे देख कर दहाड़ते हैं। उन्होंने उसका देश उजाड़ा है। उसका नगर जला कर निर्जन बना दिया गया है।

16) मेमफ़िस और तहपनहेस के लोगों ने तुम्हारा सिर फोड़ा है।

17) क्या यह तुम्हारे साथ इसलिए नहीं हुआ कि तुमने अपने प्रभु-ईश्वर का परित्याग किया, जब वह तुम्हारा पथप्रदर्शन करता था?

18) अब तुम क्यों मिस्र जा कर नील नदी का पानी पीना चाहते हो? तुम क्यों अस्सूर जा कर फ़रात नदी का पानी पीना चाहते हो?

19) तुम्हारी दुष्टता तुम को दण्ड देती है। तुम्हारा विश्वासघात तुम को मारता है। इस पर विचार करो और जान लो कि अपने प्रभु-ईश्वर का परित्याग करना और मुझ पर श्रद्धा नहीं रखना तुम्हारे लिए कितना दुःखद और कटु है।“ यह सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर की वाणी है।

20) “तुमने बहुत समय पहले से ही अपना जुआ तोड़ा और अपने बन्धन खोल कर फेंक दिये। तुमने कहा, ’मैं तेरी सेवा नहीं करूँगी’। तुम हर ऊँची पहाड़ी पर और हर घने पेड़ के नीचे व्यभिचारिणी की तरह लेट गयी।

21) मैंने तुम को श्रेष्ठ जाति की उत्तम दाखलता की तरह रोपा। तुम्हारी डालियाँ कैसे जंगली दाखलता में बदल गयी हैं?

22) चाहे तुम अपने को क्षार से धोती और साबुन मल-मल कर नहाती रहो, तुम्हारे दोष की मैल मेरे सामने बनी रहेगी।“ यह प्रभु-ईश्वर की वाणी है।

23) “तुम यह कैसे कह सकती हो, ’मैं निर्दोष हूँ, मैंने बाल-देवताओं का अनुसरण नहीं किया? घाटी में तुम्हारा आचरण कैसा रहा? इस पर विचार करो कि तुमने क्या किया। तुम चंचल साँड़नी की तरह इधर-उधर दौड़ती रही,

24) उजाड़खण्ड की गधी की तरह, जो कामातुर हो कर हवा सूँघती है, जो अपनी मस्ती में किसी के वश में नही रहती। उसे ढूँढ़ने वालों को व्यर्थ परिश्रम नहीं करना पड़ता है, वह उन्हें संगम ऋतु में मिलेगी।

25) सावधान रहो। नहीं तो तुम्हारे जूते घिस जायेंगे, तुम्हारा गला सूख जायेगा, किन्तु तुम कहती हो, ’यह सब व्यर्थ है। मैं पराये देवताओं को प्यार करती हूँ। मुछे उनके पास जाना है।’

26) “जिस प्रकार पकड़े जाने पर चोर लज्जित होता है, उसी प्रकार इस्राएलियों को लज्जित होना पड़ेगा- उन को, उनके राजाओं और अधिकारियों को, उनके याजकों और उनके नबियों को।

27) वे काठ से कहते हैं, ’तू ही हमारा पिता है’, और शिला से, ’तूने हमें जन्म दिया है’। वे मेरी और अपनी पीठ करते, किन्तु मुझ से मँह नहीं फेरते हैं किन्तु ज्यों ही उन पर विपत्ति आती है, वे मुझ से कहते हैं, ’आ कर हमारी रक्षा कर’।

28) तुम्हारे बनाये देवता कहाँ हैं? जब तुम पर विपत्ति आती है, तो वे आ कर तुम्हारी रक्षा करें। यूदा! जितने तुम्हारे नगर हैं, उतने ही तुम्हारे देवता हैं!

29) तुम क्यों मेरी शिकायत करते हो? तुम सबों ने मुझ से विद्रोह किया।“ यह प्रभु की वाणी है।

30) “मैंने तुम्हारी प्रजा को दण्ड दिया, किन्तु उस से उसका सुधार नहीं हुआ। तुम्हारी अपनी तलवार ने हिंसक सिंह की तरह तुम्हारे नबियों को फाड़ खाया है।

31) इस पीढ़ी के लोगों! तुम प्रभु के इस कथन पर ध्यान दो: क्या मैं इस्राएल के लिए उजाड़खण्ड या अँधेरी रात्रि का देश बन गया हूँ? मेरी प्रजा यह क्यों कहती हैः ’हम जहाँ चाहेंगे, वहाँ आयेंगे? हम फिर तेरे पास नहीं आयेंगे’?

32) क्या कोई युवती अपने आभूषण या कोई वधू अपना श्रृंगार भूल सकती है? किन्तु मेरी प्रजा ने न जाने कितने दिनों से मुझे भुला दिया है।

33) तुम अपने प्रेमी का पता लगाने में कितने षड्यन्त्र रचती हो! तुम बुराई करने में कितनी चतुर हो!

34) निर्दोष दरिद्रों का रक्त तेरे वस्त्रों की गोट पर लग गया है, यद्यपि तुमने उन्हें सेंध मारते नहीं पकड़ा।

35) फिर भी तुम कहती हो, ’मैं निर्दोष हूँ। उसका क्रोध मुझ से दूर हो जायेगा।’ किन्तु मैं तुम को न्यायालय में बुलाता हूँ; क्योंकि तुम कहती हो, ’मैंने कोई पाप नहीं किया’।

36) तुम कितनी आसानी से अपना मार्ग बदलती रहती हो! मिस्र भी उसी प्रकार तुम को निराश करेगा, जिस प्रकार अस्सूर ने तुम को निराश किया।

37) तुम सिर पर हाथ रख कर वहाँ से भी लौटोगी; क्योंकि प्रभु ने उन्हें त्याग दिया, जिन पर तुम भरोसा रखती हो। तुम्हें उन से कोई सहायता नहीं मिलेगी।



Copyright © www.jayesu.com