📖 - यिरमियाह का ग्रन्थ (Jeremiah)

अध्याय ==>> 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- 15- 16- 17- 18- 19- 20- 21- 22- 23- 24- 25- 26- 27- 28- 29- 30- 31- 32- 33- 34- 35- 36- 37- 38- 39- 40- 41- 42- 43- 44- 45- 46- 47- 48- 49- 50- 51- 52- मुख्य पृष्ठ

अध्याय 20

1) इम्मेर का पुत्र, याजक पशहूर, प्रभु के मन्दिर का प्रमुख निरीक्षक था। उसने यिरमियाह की यह भवियवाणी सुन कर

2) उसे पिटवाया और मन्दिर के बेनयामीन नामक ऊपरी के फाठक के काठ में डलवाया।

3) जब पशहूर ने दूसरे दिन यिरमियाह को काठ से निकलवाया, तो यिरमियाह ने उस से कहा, “अब से प्रभु तुम को ’पशहूर’ नहीं, बल्कि ’मागोर’ (चारों ओर आतंक) कह कर पुकारेगा;

4) क्योंकि प्रभु यह कहता हैः "तुम अपने और अपने मित्रों के लिए आतंक के कारण बनोगे। वे अपने शत्रुओं की तलवारों से मारे जायेंगे और यह तुम स्वयं अपनी आँखों से देखोगे। मैं यूदा के सब लोगों को बाबुल के राजा के हवाले कर दूँगा; वह उन्हें बाबुल में निर्वासित करेगा और उन्हें तलवार के घाट उतारेगा।

5) मैं इस नगर की समस्त सम्पत्ति उनके शत्रुओं के हाथ में दूँगा- इसके परिश्रम का सारा फल, इसकी सब बहुमूल्य वस्तुएँ और यूदा के राजाओं के सारे ख़जाने। वे यह लूटेंगे और बाबुल ले जायेंगे

6) और तुम पशहूर! तुम अपने घर के सब लोगों के साथ बन्दी बना कर बाबुल ले जाये जाओगे। वहाँ तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी और तुम्हारा दफ़न किया जायेगा- तुम और तुम्हारे सभी मित्र, जिन्हें तुमने झूठी भवियवाणियाँ सुनायी हैं’।“

7) प्रभु! तूने मुझे राज़ी किया और मैं मान गया। तूने मुझे मात कर दिया और मैं हार गया। मैं दिन भर हँसी का पात्र बना रहता हूँ। सब-के-सब मेरा उपहास करते हैं।

8) जब-जब मैं बोलता हूँ, तो मुझे चिल्लाना और हिंसा तथा विध्वंस की घोषणा करनी पड़ती हैं। ईश्वर का वचन मेरे लिए निरंतर अपमान तथा उपहास का कारण बन गया हैं।

9) जब मैं सोचता हूँ, मैं उसे भुलाऊँगा, मैं फिर कभी उसके नाम पर भविय वाणी नहीं करूँगा“ तो उसका वचन मेरे अन्दर एक धधकती आग जैसा बन जाता है, जो मेरी हड्डी-हड्डी में समा जाती है। मैं उसे दबाते-दबाते थक जाता हूँ और अब मुझ से नहीं रहा जाता।

10) मैंने बहुतों को यह फुसफुसाते हुए सुना है- “चारों ओर आतंक फैला हुआ हैं। उस पर अभियोग लगाओ! हम उस पर अभियोग लगायें“। जो पहले मेरे मित्र थे, वे सब इस ताक में रहते हैं कि मैं कोई ग़लती कर बैठूँ और कहते हैं, “वह शायद भटक जायेगा और हम उस पर हावी हो कर उस से बदला लेंगे''।

11) परन्तु प्रभु एक पराक्रमी शूरवीर की तरह मेरे साथ हैं। मेरे विरोधी ठोकर खा कर गिर जायेंगे। वे मुझ पर हावी नहीं हो पायेंगे और अपनी हार का कटु अनुभव करेंगे। उनका अपयश सदा बना रहेगा।

12) विश्वमण्डल के प्रभु! तू धर्मी की परीक्षा करता और मन तथा हृदय की थाह लेता है। मैं अपने को तुझ पर छोड़ता हूँ। मैं दूखूँगा कि तू उन लोगों से क्या बदला लेता है।

13) प्रभु का गीत गाओ! प्रभु की स्तुति करो! क्योंकि वह दरिद्रों के प्राणों को दुष्टों के हाथ से छुडाता है।

14) जिस दिन मैं पैदा हुआ, वह अभिशप्त हो जिस दिन मेरी माता ने मुझे जन्म दिया, उसे आशीर्वाद न मिले।

15) अभिशप्त हो वह व्यक्ति, जिसने मेरे पिता से कहते हुए उसे आनन्दित किया, “तुम को एक पुत्र पैदा हुआ है।“

16) वह व्यक्ति उन नगरों-जैसा बने, जिनका प्रभु ने बिना दया किये विनाश किया है। उसे प्रातः चीत्कार सुनाई पड़े और दिन में लड़ाई का नारा।

17) प्रभु ने मुझे गर्भ में क्यों नहीं मारा, जिससे मेरी माता मेरी कब्र बन जाती और मैं उसके गर्भ में सदा पड़ा रहता?

18) मैं अपनी माता के गर्भ से क्यों निकला, जिससे मैं कष्ट और दुःख ही सहता रहूँ और प्रतिदिन लज्जा का अनुभव करूँ?



Copyright © www.jayesu.com