📖 - प्रवक्ता-ग्रन्थ (Ecclesiasticus)

अध्याय ➤ 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- 15- 16- 17- 18- 19- 20- 21- 22- 23- 24- 25- 26- 27- 28- 29- 30- 31- 32- 33- 34- 35- 36- 37- 38- 39- 40- 41- 42- 43- 44- 45- 46- 47- 48- 49- 50- 51- मुख्य पृष्ठ

अध्याय 03

1) प्रज्ञा की सन्तति धर्मियों की सभा है, उनका राष्ट्र आज्ञाकारी और प्रेममय है।

2) पुत्रों! पिता की शिक्षा ध्यान से सुनो; उसका पालन करने में तुम्हारा कल्याण है।

3) प्रभु का आदेश है कि सन्तान अपने पिता का आदर करें ; उसने माता केा अपने बच्चों पर अधिकार दिया है।

4) जो अपने पिता पर श्रद्धा रखता है, वह अपने पापों का प्रायश्चित करता है

5) और जो अपनी माता का आदर करता है, वह मानो धन का संचय करता है।

6) जो अपने पिता का सम्मान करता है, उसे अपनी ही सन्तान से सुख मिलेगा और जब वह प्रार्थना करता है, तो ईश्वर उसकी सुन लेगा।

7) जो अपने पिता का आदर करता है, वह दीर्घायु होगा। जो अपनी माता को सुख देता है, वह प्रभु का आज्ञाकारी है।

8) जो प्रभु पर श्रद्धा रखता है, वह अपने माता-पिता का आदर करता और उनकी सेवा वैसे ही करता है, जैसे दास अपने स्वामी की सेवा करता है।

9) वचन और कर्म से अपने पिता का आदर करो,

10) जिससे तुम को उसका आशीर्वाद प्राप्त हो।

11) पिता का आशीर्वाद उसके पुत्रों का घर सुदृढ़ बनाता है, किन्तु माता का अभिशाप उसकी नींव उखाड़ देता है।

12) अपने पिता के अपमान पर गौरव मत करो, उसका अपयश तुम को शोभा नहीं देता।

13) पिता का सम्मान मनुष्य का गौरव है और माता का अपयश पुत्र को शोभा नहीं देता।

14) पुत्र! अपने बूढ़े पिता की सेवा करो। जब तक वह जीता रहता है, उसे उदास मत करो।

15) यदि उसका मन दुर्बल हो जाये, तो उस से सहानुभूति रखो। अपने स्वास्थ्य की उमंग में उसका अनादर मत करो; क्योंकि पिता की सेवा-षुश्रूषा नहीं भुलायी जायेगी,

16) वह तुम्हारे पापों का प्रायश्चित्त

17) और तुम्हारी धार्मिकता समझी जायेगी। लोग तुम्हारी विपत्ति के दिन तुम को याद करेंगे और तुम्हारे पाप धूप में पाले की तरह गल जायेगे।

18) जो अपने पिता का त्याग करता, वह ईष-निंदक के बराबर है। जो अपनी माता को दुःख देता है, वह ईश्वर द्वारा अभिशप्त है।

19) पुत्र! नम्रता से अपना व्यवसाय करो और लोग तुम्हें दानशील व्यक्ति से भी अधिक प्यार करेंगे।

20) तुम जितने अधिक बड़े हो, उतने ही अधिक नम्र बनों इस प्रकार तुम प्रभु के कृपापात्र बन जाओगे। बहुत लोग घमण्डी और गर्वीले हैं, किन्तु ईश्वर दीनों पर अपने रहस्य प्रकट करता है।

21) प्रभु का सामर्थ्य अत्यधिक महान् है, किन्तु वह विनम्र लोगों की श्रद्धांजलि स्वीकार करता है।

22) न तो अपनी बुद्धि के परे की बाते समझने का प्रयत्न करो और रहस्यमय बातों के फेर में मत पड़ो।

23) गुप्त रहस्यों को अपनी आॅखों से देखने की तुम्हें कोई आवश्यकता नहीं।

24) जो तुम्हारी समझ के परे है, उस में मत फॅसो।

25) जो शिक्षा तुम्हें मिली है, वह मानव बुद्धि से परे है।

26) बहुत लोग अपने-अपने विचारों के कारण भटक गये और निराधार कल्पनाओें ने उनकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी। यदि तुम्हें आँखें नहीं हैं, तो प्रकाश से वंचित रहोगे; यदि तुम्हें ज्ञान नहीं, तो तुम में प्रज्ञा का अभाव होगा।

27) कठोर हृदय अन्त में बुरे दिन देखेगा। जो जोखिम से प्यार करता है, वह उस में नष्ट हो जायेगा।

28) कपटी हृदय अपने कार्यो में असफल होगा और दुष्ट हृदय पाप के जाल में फॅसेगा।

29) दुष्ट हृदय बहुत कष्ट पायेगा। पापी पाप-पर-पाप करता रहेगा।

30) अहंकारी के रोग को कोई इलाज नहीं है, क्येांकि बुराई ने उस में जड़ पकड़ ली है।

31) समझदार मनुष्य दृष्टान्तों पर विचार करता है। जो कान लगा कर सुनता है, वह प्रज्ञा की कामना करता है।

32) प्रज्ञासम्पन्न और समझदार हृदय पाप से दूर रहेगा और अपने कार्यो में सफल होगा।

33) पानी प्रज्वलित आग बुझाता और भिक्षादान पाप मिटाता है।

34) जो परोपकार के बदले में परोपकार करता, वह भविष्य का ध्यान रखता है। गिरने पर उसे सहारा मिलेगा।



Copyright © www.jayesu.com