📖 - प्रवक्ता-ग्रन्थ (Ecclesiasticus)

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अध्याय 06

1) बड़ी या छोटी, किसी भी बात में अपराध मत करो। मित्र से शत्रु मत बनो। बदनामी से लज्जा और कलंक मिलता है, यही दोमुँहे पापी का भाग्य है।

2) साँड़ की तरह घमण्डी मत बनो। कहीं ऐसा न हो कि वह तुम्हारा विनाश कर दे,

3) तुम्हारे पत्ते खाये, तुम्हारे फल तोड़े और तुम को सूखे पेड़ की तरह छोड़ दे।

4) वासना सब का विनाश करती और उन्हें उनके शत्रुओं के उपहास का पात्र बनाती है।

5) प्रिय शब्दों से मित्रों की संख्या बढ़ती है और मधुर वाणी से मैत्रीपूर्ण व्यवहार।

6) तुम्हारे परिचित अनेक हों, किन्तु तुम्हारा परामर्शदाता सहस्रों में से एक।

7) परीक्षा लेने के बाद किसी को मित्र बना लो, उस पर तुरन्त विश्वास मत करो।

8) कोई मित्र अवसरवादी होता है, वह विपत्ति के दिन तुम्हारा साथ नहीं देगा।

9) कोई मित्र शत्रु बन जाता है और अलगाव का दोष तुम्हें ही देता है।

10) कोई मित्र तुम्हारे यहाँ खाता-पीता है, किन्तु विपत्ति के दिन दिखाई नहीं देता।

11) समृद्धि के दिनों में वह तुम्हारा अंतरंग मित्र बन कर तुम्हारे नौकरों पर रोब जमाता है,

12) किन्तु दुर्दिन आते ही वह तुम्हारा शत्रु बन कर तुम से मुँह फेर लेगा।

13) तुम अपने शत्रुओं से दूर रहो और अपने मित्रों से सावधान।

14) सच्चा मित्र प्रबल सहायक है; जिसे मिल जाता है, उसे खजाना प्राप्त है।

15) सच्चा मित्र एक अमूल्य निधि है, उसकी कीमत धन से चुकायी नहीं जा सकती।

16) सच्चा मित्र संजीवनी है, वह प्रभु-भक्तों को ही प्राप्त होता है।

17) प्रभु-भक्त मित्रता का निर्वाह करता है; वह जैसा है, उसका मित्र वैसा ही होगा।

18) पुत्र! बचपन से शिक्षा ग्रहण करो। तब तुम्हें बुढ़ापे में प्रज्ञा प्राप्त होगी।

19) तुम हल चलाने और बोने वाले की तरह प्रज्ञा प्राप्त करने का प्रयत्न करो और उसके अच्छे फलों की प्रतीक्षा करो।

20) तुम्हें कुछ समय तक परिश्रम करना पड़ेगा किन्तु बाद में उसे शीघ्र प्राप्त करोगे।

21) अज्ञानियों के लिए प्रज्ञा बहुत कठिन होती है और नासमझ उसकी साधना में दृढ़ नहीं रहेगा।

22) प्रज्ञा भारी पत्थर की तरह उसकी परीक्षा लेती है और वह उसे फेंक देने में देर नहीं करेगा;

23) क्योंकि प्रज्ञा अपने नाम के अनुरूप कठिन है। बहुत कम लोग उसे देख पाते हैं।

24) पुत्र! मेरी बात मानो; मेरा परामर्श मत ठुकराओे।

25) प्रज्ञा की बेड़ियाँ अपने पैरों में पहनो और उसका जूआ अपनी गरदन पर रखो।

26) अपने कन्धे झुका कर उसे धारण करो और उसके बन्धनों से मत चिढ़ो।

27) उस को सारे हृदय से अपनाओे और सारी शक्ति से उसका पालन करो।

28) उसकी खोज करो और वह तुम को मिल जायेगी; उसे पाने पर तुम उसे मत जाने दो।

29) अन्त में तुम्हें उस में शान्ति मिलेगी और वह तुम्हारे लिए आनन्द का कारण बनेगी।

30) उसकी बेड़ियाँ तुम्हारा सुदृढ़ आश्रय बनेंगी और उसका जूआ एक महिमामय आभूषण।

31) वह सोने से अलंकृत है और उसके बन्धन बैंगनी फ़ीते-जैसे हैं।

32) तुम उसे महिमामय आभूषण की तरह पहनोगे और उसे आनन्द के मुकुट की तरह धारण करोगे।

33) पुत्र! यदि तुम सुनना चाहो, तो शिक्षा प्राप्त करोगे; यदि उस में मन लगाओगे, तो समझदार बनोगे।

34) यदि तुम रूचि से सुनोगे, तो ज्ञान प्राप्त करोगे ; यदि कान दोगे, तो बुद्धिमान् बनोगे।

35) बड़े-बूढ़ो की संगति करो और उनकी प्रज्ञा की बातों पर ध्यान दो। धर्म-सम्बन्धी चरचा रूचि से सुनो और ज्ञान-सम्बन्धी सूक्तियाँ मत भुलाओ।

36) यदि तुम को समझदार व्यक्ति का पता चले, तो सबेरे ही उस से मिलने जाओ। उसके द्वार की देहली तुम्हारे पैरों से घिस जाये।

37) प्रभु की आज्ञाओे का चिन्तन करो, उसके आदेशों का पालन करो। वह तुम्हारा मन दृढ़ करेगा और तुम को वह प्रज्ञा देगा, जिसकी तुम कामना करते हो।



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