📖 - प्रवक्ता-ग्रन्थ (Ecclesiasticus)

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अध्याय 43

1) स्वच्छ नक्षत्रमण्डल और महिमामय आकाश हमारी आँखों के सामने कितने रमणीय हैं!

2) सूर्य उदित होते ही मानो कहता है: सर्वोच्च प्रभु की सृष्टि कितनी श्रेष्ठ है!

3) दोपहर के समय वह पृथ्वी को झुलसाता है; उसका प्रखर ताप कौन सह सकता है?

4) धातु गलाने वाली भट्टी की आग तेज है; पर्वतों को जलाने वाला सूर्य उस से तीन गुना गर्म है। वह भस्म करने वाला धूआँ उगलता है और उसकी प्रखर किरणें चकाचैंधउत्पन्न करती हैं।

5) वह प्रभु महान् है, जिसने उसकी सृष्टि की है और जिसके आदेश पर वह तेजी से परिक्रमा करता है।

6) चन्द्रमा निश्चित समय पर प्रकाश देता और काल और ऋतु निर्धारित करता है।

7) चन्द्रमा के आधार पर पर्व निर्धारित होते हैं। उसका प्रकाश बढ़ता और घटता है।

8) चन्द्रमा के अनुसार महीने का नाम रखा जाता है। उसकी वृद्धि और ह्रास अद्भुत हैं।

9) वह नभोमण्डल के नक्षत्रों की ध्वजा है और आकाश के शिखर पर शोभायमान है।

10) तारे आकाश की शोभा बढ़ाते हैं; वे प्रभु की ऊँचाईयों के चमकते अलंकार है।

11) वे परमपावन प्रभु की आज्ञा के अनुसार पंक्तिबद्ध है और अपने जागरण में कभी नहीं थकते।

12) इन्द्रधनुष को देख कर उसके सृष्टिकर्ता को धन्य कहो। उसकी भव्यता कितनी रमणीय है!

13) वह आकाश में प्रकाशमान् वृत्त खींचता है। सर्वोच्च प्रभु के हाथों ने उसे ताना है।

14) वह अपने आदेश द्वारा हिम गिराता और अपने निर्णय के अनुसार बिजली चमकाता है।

15) वह अपने भण्डार खोलता और पक्षियों की तरह बादल उड़ जाते हैं।

16) वह अपने सामर्थ्य द्वारा बादलों को सघन करता और ओले नीचे गिरते हैं। बिजली की कड़क पृथ्वी को कँपाती है।

17) पर्वत उसे देख कर थर्रा उठते हैं। उसके आदेश पर दक्षिणी हवा,

18) उत्तर की आँधी और बवण्डर आता है।

19) वह उतरने वाले पक्षियों की तरह हिम गिराता और वह टिड्डी दल की तरह छा जाता है।

20) वह अपने श्वेत सौन्दर्य से आँख में चकाचैंध उत्पन्न करता और उतरने पर हृदय को मुग्ध कर देता है।

21) प्रभु नमक की तरह पृथ्वी पर पाला गिराता है, जो जम कर काँटों की तरह नुकीला हो जाता है।

22 ठण्डी उत्तरी हवा बहने लगती है और जल की सतह जमा कर बर्फ बना देती है। वह हर जलाषय पर छा जाती और उसे मानो कवच से ढक देती है।

23) लू पर्वतों को खा जाती, मरुभूमि को झुलसाती और हरियाली को आग की तरह जलाती है।

24) बादल शीघ्र ही सब में नवजीवन का संचार करते हैं और ओस ग्रीष्म के बाद सब को आनन्दित करती है।

25) प्रभु ने अपनी योजना के अनुसार महासागर को शान्त किया और उस में टापू लगा दिये।

26) समुद्र पर यात्रा करने वाले उसकी जोखिमों का वर्णन करते और हम सुनकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं।

27) ये हैं प्रभु के महान् और अद्भुत कार्य, हर प्रकार के जीव-जन्तु और भीमकाय जलचर।

28) उसके सामर्थ्य से उसका दूत सकुशल विचरता है और उसके आदेश के अनुसार सब सुसंघटित हैं।

29) हम कहाँ तक कहें! उसके महान् कार्यों का अन्त नहीं। हम अन्त में यह कहते हैं: "वहीं सब कुछ है!"

30) हम उसकी महिमा का वर्णन करने में असमर्थ हैं; क्योंकि वह अपने कार्यों से कहीं अधिक महान् है।

31) प्रभु भीषण और अत्यधिक महान् है, उसका सामर्थ्य आश्चर्यजनक है।

32 (32-33) शक्ति भर प्रभु की महत्ता गाओ, क्योंकि वह तुम्हारी स्तुति के परे है। उसकी महिमा श्लाघ्य हैं।

34) पूरी शक्ति लगा कर उसकी स्तुति करते जाओ। तुम उसका पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर पाओगे।

35) किसने उसे देखा, जो उसका वर्णन कर सके? कौन उसके महत्व के अनुसार उसकी महिमा कर सकता है?

36) जो दिखता, उस से कहीं अधिक अप्रकट है; क्योंकि हमने उसके कार्यों में से कुछ को ही देखा है।

37) प्रभु ने सब कुछ बनाया है और भक्तों को प्रज्ञा का वरदान दिया है।



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