📖 - स्तोत्र ग्रन्थ

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अध्याय 78

1) मेरी प्रजा! मेरी शिक्षा पर ध्यान दो। मेरे मुख के शब्द कान लगा कर सुनो।

2) मैं तुम लोगों को एक दृष्टान्त सुनाऊँगा, मैं अतीत के रहस्य खोल दूँगा।

3) हमने जो सुना और जाना है, हमारे पूर्वजों ने हमें जो बताया है-

4) हम यह उनकी सन्तति से नहीं छिपायेंगे। हम यह आने वाली पीढ़ी को बतायेंगे- प्रभु की महिमा, उसका सामर्थ्य और उसके किये हुए चमत्कार।

5) उसने याकूब के लिए एक नियम लागू किया; उसने इस्राएल के लिए एक विधान निर्धारित किया। उसने हमारे पूर्वजों को यह आज्ञा दी कि वे उसे अपने पुत्रों को सिखायें,

6) जिससे आने वाली पीढ़ी, भविष्य में उत्पन्न होने वाले उनके पुत्र उसे जान जायें और वे भी उसे अपने पुत्रों को बतायें।

7) यह इसलिए हुआ कि वे प्रभु पर भरोसा रखें, ईश्वर के महान् कार्य नहीं भुलायें, उसकी आज्ञाओं का पालन करते रहें

8) और अपने पूर्वजों-जैसे नहीं बनें। वह एक हठीली और विद्रोही पीढ़ी थी: एक ऐसी पीढ़ी, जिसका हृदय दृढ़ नहीं, जिसका मन ईश्वर के प्रति निष्ठावान् नहीं।

9) एफ्रईम के अनुभवी धर्नुधारी पुत्रों ने युद्ध के दिन पीठ दिखायी;

10) क्योंकि उन्होंने ईश्वर के विधान का पालन नहीं किया था, उन्होंने उसके नियमों पर चलना अस्वीकार किया था।

11) उन्होंने उसके महान् कार्य, उसके दिखाये हुए चमत्कार भुला दिये थे।

12) ईश्वर ने मिस्र देश में, तानिस के मैदान में उनके पूर्वजों को चमत्कार दिखाया था।

13) उसने समुद्र विभाजित कर उन्हें पार कराया, उसने जल को बाँध की तरह खड़ा कर दिया।

14) वह उन्हें दिन में एक बादल द्वारा और हर रात को अग्नि के प्रकाश द्वारा ले चलता था।

15) उसने मरूभूमि में चट्टाने फोड़ कर मानो अगाध गर्त में से जल पिलाया।

16) उसने चट्टान में से जलधाराएँ निकालीं और पानी को नदियों की तरह बहाया।

17) फिर भी वे उसके विरुद्ध पाप करते रहे और मरूभूमि में सर्वोच्च ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह करते रहे।

18) उन्होंने अपनी रूचि का भोजन माँगा और इस प्रकार ईश्वर की परीक्षा ली।

19) उन्होंने ईश्वर की निन्दा करते हुए यह कहा: "क्या ईश्वर मरूभूमि में हमारे लिए भोजन का प्रबन्ध कर सकता है?

20) उसने तो चट्टान पर प्रहार किया, और उस में से जल की नदियाँ फूट निकलीं। किन्तु क्या वह अपनी प्रजा के लिए रोटी और मांस का प्रबन्ध भी कर सकता है?

21) यह सुन कर प्रभु क्रुद्ध हुआ- याकूब के विरुद्ध अग्नि धधकने लगी, इस्राएल के विरुद्ध क्रोध भड़क उठा;

22) क्योंकि वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, उन्हें उसकी सहायता का भरोसा नहीं था।

23) प्रभु ने आकाश के बादलों को आदेश दिया, उसने आकाश के द्वारा खोल दिये।

24) उसने उनके भोजन के लिए मन्ना बरसाया और उन्हें स्वर्ग की रोटी दी।

25) हर एक ने स्वर्गदूतों की रोटी खायी; प्रभ्ुा ने उन्हें भरपूर भोजन दिया।

26) उसने आकाश में पुरवाई चलायी; उसने अपने सामर्थ्य द्वारा दक्खिनी हवा बहायी।

27) उसने उनके लिए धूल की तरह भरपूर मांस और समुद्र के बालू की तरह असंख्य पक्षियों को बरसाया।

28) उसने उन को उनके शिविरों के बीचोंबीच और उनके तम्बुओं के चारों ओर गिराया।

29) वे खा कर तृप्त हो गये, ईश्वर ने उन्हें उनकी रूचि का भोजन दिया था।

30) वे अपनी लालसा को शान्त नहीं कर पाये थे, उनका भोजन अभी उनके मुँह में ही था

31) कि ईश्वर का क्रोध उन पर भड़क उठा। उसने उनके शूरवीरों को मारा, उसने इस्राएल के युवकों को भूमि पर बिछा डाला।

32) यह सब होने पर भी वे पाप करते रहे, उन्हें ईश्वर के चमत्कारों पर विश्वास नहीं था।

33) इसलिए उसने एक ही साँस में उनके दिन और आतंक में उनके वर्ष समाप्त कर दिये।

34) जब ईश्वर उन को मारता था, तब वे उसकी खोज करते थे- वे पश्चाताप करते हुए उसकी ओर अभिमुख हो गये।

35) तब उन्हें याद आया कि ईश्वर ही उनकी चट्टान, सर्वोच्च ईश्वर ही उनका मुक्तिदाता था।

36) किन्तु वे अपने मुख से उसे धोखा देना चाहते थे, उनकी जिह्वा उस से झूठ बोलती थी;

37) क्योंकि उनके हृदय में उसके प्रति निष्ठा नहीं थी, उन्हें उसके विधान का भरोसा नहीं था।

38) फिर भी दयासगर प्रभु ने उनका अपराध क्षमा कर उन्हें विनाश से बचा लिया। उसने बारम्बार अपना कोप दबाया; उसने अपना क्रोध नहीं भड़कने दिया।

39) उसे याद रहा कि वे हाड़-मांस भर हैं, श्वास मात्र, जो निकल कर नहीं लौटता।

40) कितनी बार उन्होंने मरूभूमि में उसके विरुद्ध विद्रोह किया, निर्जन स्थान में, उसके विरुद्ध अपराध किया।

41) उन्होंने बारम्बार ईश्वर की परीक्षा ली; वे इस्राएल के परमपावन ईश्वर को चिढ़ाते रहे।

42) उन्हें उसकी शक्ति याद नहीं रही- वह दिन, जब उसने उन को शत्रुओं से छुड़ाया था;

43) किस प्रकार उसने मिस्र को अपने चिह्न दिखाये और तानिस के निवासियों को अपने चमत्कार।

44) उसने वहाँ की नहरों और नदियों को रक्त में बदल दिया, जिससे वे जल न पी सकें।

45) उसने उन पर डाँस छोड़ दिये, जो उन्हें काटते थे और उनके बीच मेढ़क भेजे, तो उन्हें सताते थे।

46) उसने उनकी फसलें टिड्डों को दे दीं, उनके घोर परिश्रम का फल टिड्डियों को।

47) उसने ओलों से उनकी दाखबारियों को नष्ट किया और पाले से उनके गूलर के पेड़ों को।

48) उसने उनके पशुओं पर ओले बरसाये और उनकी भेड़-बकरियों पर बिजली गिरायी।

49) उसने उन पर अपना प्रचण्ड क्रोध भड़कने दिया: रोष, प्रकोप, संकट और विनाशकारी दूतों का दल।

50) उसने अपने क्रोध पर अंकुश नहीं रखा; उसने उन को मृत्यु से नहीं बचाया, बल्कि महामारी से उनका जीवन समाप्त कर दिया।

51) उसने मिस्रियों के हर पहलौठे को, जवानी की पहली सन्तान को हाम के तम्बुओं में मारा।

52) वह अपनी प्रजा को भेड़ों की तरह निकाल लाया और मरुभूमि में उन्हें झुण्ड की तरह ले चला।

53) वह उन्हें सुरक्षित और निर्भय ले गया, जब कि समुद्र ने उनके शत्रुओं को निगल लिया।

54) वह उन्हें अपने पवित्र देश ले चला, उस पर्वत तक, जिसे उसके बाहुबल ने जिताया था।

55) उसने उनके सामने से राष्ट्रों को मार भगाया; उसने भूमि को बाँट कर उन्हें विरासत के रूप में दे दिया। उसने दूसरों के तम्बुओं में इस्राएल के वंशों को बसाया।

56) फिर भी विद्रोही बन कर उन्होंने सर्वोच्च ईश्वर की परीक्षा ली और उसके नियमों का पालन नहीं किया।

57) वे भटक गये और अपने पूर्वजों की तरह विश्वासघाती बने। वे धोखा देने वाले धनुष की तरह मुड़ गये।

58) उन्होंने अपने पहाड़ी पूजास्थानों द्वारा उसे क्रोधित किया और अपनी देवमूर्तियों द्वारा उसे चिढ़ाया।

59) यह सुन कर प्रभु क्रुद्ध हुआ और उसने इस्राएल का परित्याग कर दिया।

60) उसने शिलों में अपना निवास छोड़ दिया, अपना वह तम्बू, जहाँ वह मनुष्यों के बीच रहता था।

61) उसने मंजूषा को, अपने सामर्थ्य और गौरव के प्रतीक को शत्रुओं के हाथ पड़ने दिया।

62) उसका क्रोध अपनी प्रजा पर भड़क उठा; उसने उसे तलवार का शिकार होने दिया।

63) अग्नि उनके युवकों को निगल गयी; उनकी युवतियों के विवाह-गीत नहीं सुनाई पड़े।

64) उनके याजक तलवार से मारे गये और उनकी विधवायें शोक-गीत भी नहीं गा सकीं।

65) तब प्रभु मानो नींद से जाग उठा, योद्धा की तरह, जो मदिरा पी कर ललकारता है।

66) उसने अपने शत्रुओं को महामारी से सताया और उन्हें सदा के लिए अपमानित किया।

67) उसने यूसुफ़ का निवास त्याग दिया, उसने एफ्ऱईम के वंश को नहीं चुना।

68) उसने यूदा के वंश को चुना सियोन के पर्वत को, जिस को वह प्यार करता है।

69) उसने ऊँचे पर्वतों के सदृश अपना मन्दिर बनवाया, पृथ्वी के सदृश, जिसे उसने सदा के लिए स्थापित किया।

70) उसने अपने सेवक दाऊद को चुना, उसे भेड़शाला से निकाल लिया।

71) उसने भेडें, चराने वाले को बुलाया और उसे अपनी प्रजा याकूब का, अपनी विरासत इस्राएल का चरवाहा बनाया।

72) दाऊद ने सच्चे हृदय से उन्हें चराया और कुशल हाथों से उनका नेतृत्व किया।



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